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छव्वीसवाँ शतक : उद्देशक - १]
सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरति ।
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॥ छव्वीसइमे बंधिसए : पढमो उद्देसओ समत्तो ॥ २६-१ ॥
[८८] नामकर्म, गोत्रकर्म और अन्तरायकर्म का (बन्ध-सम्बन्धी कथन) ज्ञानावरणीयकर्म के समान समझना चाहिए ।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते
हैं ।
विवेचन- – उ. १, सू. ४४ में ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध की जिस प्रकार सभी स्थानों में चतुर्भंगी की चर्चा की है, उसी प्रकार इन तीनों कर्मों के बन्ध के विषय में भी समझ लेना चाहिए।
॥ छव्वीसवाँ शतक : प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥
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