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________________ छब्बीसवाँ शतक : उद्देशक-१] [५३७ [६१ प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव ने वेदनीयकर्म बांधा, बांधता है और बांधेगा ? इत्यादि (चातुर्भंगिक प्रश्न।) [६१ उ.] इसी प्रकार नैरयिक से लेकर वैमानिक तक जिसके जो लेश्यादि हों, वे कहने चाहिए। इन 'सभी में पहला और दूसरा भंग पाया जाता है। विशेष यह है कि मनुष्य की वक्तव्यता सामान्य जीव के समान ६२. जीवे णं भंते ! मोहणिज्जं कम्मं किं बंधी, बंधति? जहेव पावं कम्मं तहेव मोहणिजं पि निरवसेसं जाव वेमाणिए। [६२ प्र.] भगवन् ! क्या जीव ने मोहनीयकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न । [६२ उ.] गौतम ! जिस प्रकार पापकर्मबन्ध के विषय में कहा था, उसी प्रकार समग्र कथन मोहनीयकर्मबन्ध के विषय में यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए। विवेचन—ज्ञानावरणीय से मोहनीयकर्मबन्ध तक चतुर्भंगीचर्चा—जिस प्रकार औधिक जीव सहित पापकर्मबन्ध-सम्बन्धी पच्चीस दण्डक कहे, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मबन्धसम्बन्धी पच्चीस दण्डक कहने चाहिए। किन्तु पापकर्मबन्ध के दण्डक में जीवपद और मनुष्यपद में सकषाय और लोभकषाय की अपेक्षा सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानवी जीव मोहनीयकर्मरूप पापकर्म का अबन्धक होता है, इसलिए चारों भंग कहे थे, क्योंकि सकषायी जीव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय का बन्धक अवश्य होता है, अबन्धक नहीं होता। __ वेदनीयकर्मसम्बन्धी चर्चा-वेदनीयकर्म के बन्धक में पहला भंग अभव्यजीव की अपेक्षा से है, दूसरा भंग-भविष्य में मोक्ष जाने वाले भव्यजीव की अपेक्षा से है, तीसरा भंग यहाँ घटित नहीं होता, क्योंकि जो जीव वेदनीयकर्म का अबन्धक हो जाता है, वह फिर वेदनीयकर्म का बन्ध नहीं करता। चौथा भंग अयोगीकेवली की अपेक्षा से है। इस प्रकार वेदनीयकर्मबन्ध में तीसरे भंग के सिवाय शेष तीन भंग घटित होते हैं। । सलेश्यजीव में यहाँ तीसरे भंग को छोड़कर शेष तीन भंग बताए हैं, किन्तु उसमें चौथा भंग (वेदनीयकर्म बांधा था, नहीं बांधता है, नहीं बांधेगा) कैसे घटित होना सम्भव है, क्योंकि लेश्या तेरहवें गुणस्थान तक होती है। अत: वहाँ तक सलेश्यजीव वेदनीयकर्म का बन्धक होता है, तब फिर अबन्धक कैसे हो सकता है ? कतिपय आचार्य इसका समाधान यों करते हैं—इस सूत्र के प्रमाण (वचन) के अनुसार अयोगी-अवस्था के प्रथम समय में 'घंटालालान्यायेन' परम शुक्ललेश्या होती है, इसलिए सलेश्यी में भी चतुर्थ भंग घटित हो सकता है। तत्त्व केवलिगम्य है। कृष्णादि पांच लेश्यावाले जीवों में अयोगीपन का अभाव होने से वेदनीयकर्म के अबन्धक नहीं होते।
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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