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________________ ५२६ ] पढमो उद्देसओ : 'जीवादि-बंध' प्रथम उद्देशक : जीवादि के बन्धसम्बन्धी प्रथम स्थान : जीव को लेकर पापकर्मबन्ध- प्ररूपण ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे एवं वयासी— [३] उस काल उस समय में राजगृह नगर में यावत् गौतमस्वामी ने इस प्रकार पूछा— ४. जीवे णं भंते! पावं कम्मं किं बंधी, बंधती, बंधिस्सति; बंधी, बंधति, न बंधिस्सति; बंधी, न बंधति, बंधिस्सति; बंधी, न बंधति, न बंधिस्सति ? गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी, बंधति, बंधिस्सति; अत्थेगतिए बंधी, बंधति, न बंधिस्सति; अत्थेगतिए बंधी, न बंधति, बंधिस्सइ; अत्थेगतिए बंधी, न बंधति, न बंधिस्सति । [४ प्र.] भगवन् (१) क्या जीव ने (भूतकाल में) पापकर्म बांधा था, (वर्तमान में) बांधता है और (भविष्य में) बांधेगा ? (२) (अथवा क्या जीव ने पापकर्म) बांधा था, बांधता है और नहीं बांधेगा ? (३) (या जीव ने पापकर्म) बांधा था, नहीं बांधता है और बांधेगा ? (४) अथवा बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा ? [४ उ.] गौतम ! (१) किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा। (२) किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है, किन्तु आगे नहीं बांधेगा। (३) किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, अभी नहीं बांधता है, किन्तु आगे बांधेगा। (४) किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, अभी नहीं बांधता है आगे भी नहीं बांधेगा। विवेचन — जीव के पापकर्मबन्धसम्बन्धी चतुर्भंगी - ( १ ) इन चार भंगों में से प्रथम भंग'पापकर्म बांधा था, बांधता है, बांधेगा' - अभव्य जीव की अपेक्षा से हैं । (२) 'बांधा था, बांधता है और नहीं बांधेगा' यह द्वितीय भंग क्षपक- अवस्था को प्राप्त होने वाले भव्य जीव की अपेक्षा से है । (३) 'बांधा था, नहीं बांधता है, किन्तु आगे बांधेगा' यह तृतीय भंग जिस जीव ने मोहनीय कर्म का उपशम किया है, उस भव्य जीव की अपेक्षा से और (४) 'बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा; ' यह चतुर्थ भंग क्षीण - मोहनीय जीव की अपेक्षा से हैं । शंका समाधान — कोई यह शंका करे कि जिस प्रकार 'बांधा था' के चार भंग बनते हैं, उसी प्रकार ' नहीं बांधा था' के भी चार भंग क्यों नहीं बन सकते ? इसका समाधान यह है कि कोई भी जीव ऐसा नहीं है जिसने भूतकाल में पापकर्म नहीं बांधा था। इसलिए ' नहीं बांधा था' ऐसा मूल भंग ही नहीं बनता तो फिर चार भंग बनने का तो प्रश्न ही नहीं हैं। १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९२९ (ख) भगवती. (हिन्दी - विवेचन) भा. ७, पृ. ३५४९
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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