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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [२४३] धर्मध्यान के चार लक्षण बताए हैं, यथा—(१) आज्ञारुचि, (२) निसर्गरुचि, (३) सूत्ररुचि और (४) अवगाढ़रुचि। __ २४४. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पत्नत्ता, तं जहा—वायणा पडिपुच्छणा परियट्टणा धम्मकहा। __ [२४४] धर्मध्यान के चार आलम्बन कहे हैं, यथा—(१) वाचना, (२) प्रतिपृच्छना, (३) परिवर्तना और (४) धर्मकथा।
२४५. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुपेहाओ पन्नत्ताओ, तं जहा—एगत्ताणुपेहा अणिच्चाणुपेहा असरणाणुपेहा संसाराणुपेहा।
[२४५] धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ कही हैं, यथा—(१) एकत्वानुप्रेक्षा, (२) अनित्यानुप्रेक्षा, (३) अशरणानुप्रेक्षा और (४) संसारानुप्रेक्षा।
२४६. सुक्के झाणे चउब्विधे चउपडोयारे पन्नत्ते, तं जहा—पुहत्तवियक्के सवियारी, एगत्तवियक्के अवियारी, सुहुमकिरिए अनियट्टी, समोछिन्नकिरिए अप्पडिवाई।
[२४६] शुक्लध्यान चार प्रकार का है और चतुष्प्रत्यवतार कहा गया है, यथा—(१) पृथक्त्ववितर्कसविचार, (२) एकत्ववितर्क-अविचार, (३) सूक्ष्मक्रिया-अनिवर्ती और (४) समुच्छिन्नक्रिया-अप्रतिपाती।
२४७. सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता, तं जहा—खंती मुत्ती अजवे मद्दवे।
[२४७] शुक्लध्यान के चार लक्षण कहे हैं, यथा—(१) क्षान्ति (क्षमा), (२) मुक्ति (निर्लोभता या अनासक्ति), (३) आर्जव (सरलता) और (४) मार्दव (मृदुता या नम्रता)।
___ २४८. सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पन्नत्ता, तं जहा—अव्वहे असम्मोहे विवेगे विओसग्गे।
[२४८] शुक्लध्यान के चार आलम्बन कहे गए हैं, यथा—(१) अव्यथा, (२) असम्मोह, (३) विवेक और (४) व्युत्सर्ग।
२४९. सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुपेहाओ पन्नत्ताओ, तं जहा—अणंतवत्तियाणुप्पेहा विप्परिणामाणुप्पेहा असुभाणुपेहा अवायाणुपेहा। से तं झाणे।
[२४९] शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ कही हैं । यथा—(१) अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा, (२) विपरिणामअनुप्रेक्षा, (३) अशुभानुप्रेक्षा और (४) अपायानुप्रेक्षा।
यह हुआ ध्यान का समग्र वर्णन।
विवेचन-ध्यान : स्वरूप और प्रकार—मन को किसी एक वस्तु में एकाग्र करना ध्यान है। छद्मस्थों का ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक का होता है । उत्तम संहनन वालों का ध्यान अन्तर्मुहूर्त से अधिक रह सकता है । एक वस्तु से दूसरी वस्तु में ध्यान के संक्रमण होने पर तो ध्यान का प्रवाह चिरकाल तक भी रह सकता है। अर्हन्तों के लिए तो योगों का निरोध करना ही ध्यानरूप हो जाता है। ध्यान के चार प्रकार हैं।