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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तं वेयावच्चे। __ [२३५ प्र.] (भगवन्!) वैयावृत्य कितने प्रकार का है ? __ [२३५ उ.] (गौतम!) वैयावृत्य दस प्रकार का कहा गया है। यथा—(१) आचार्यवैयावृत्य, (२) उपाध्यायवैयावृत्य, (३) स्थविरवैयावृत्य, (४) तपस्वीवैयावृत्य, (५) ग्लानवैयावृत्य, (६) शैक्ष (नवदीक्षित)-वैयावृत्य, (७) कुलवैयावृत्य, (८) गणवैयावृत्य, (९) संघवैयावृत्य और (१०) साधर्मिकवैयावृत्य। यह वैयावृत्य का वर्णन है।
२३६. से किं तं सज्झाए.?
सज्झाए पंचविधे पन्नत्ते, तं जहा—वायणा पडिपुच्छणा परियट्टणा अणुप्पेहा धम्मकहा। से तं सज्झाए।
[२३६ प्र.] (भगवन् !) स्वाध्याय कितने प्रकार का है ?
[२३६ उ.] (गौतम!) स्वाध्याय पांच प्रकार का कहा गया है, यथा-(१) वाचना, (२) प्रतिपृच्छना, (३) परिवर्तना, (४) अनुप्रेक्षा और (५) धर्मकथा। यह हुआ स्वाध्याय का वर्णन।
विवेचन—वैयावृत्य : प्रकार और स्वरूप—वैयावृत्य जैन शास्त्रों का पारिभाषिक शब्द है। यह मुख्यतया सेवा-शुश्रूषा या परिचर्या के अर्थ में प्रयुक्त होता है। प्रस्तुत में वैयावृत्य के उत्तम पात्रों के अनुसार १० भेद किये हैं। आचार्य (गुरु), तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित आदि को विधिपूर्वक आहारादि लाकर देना, परिचयां करना. सेवा करना आदि वेयावत्य है।
स्वाध्याय : स्वरूप और प्रकार-अस्वाध्याय-काल को या अस्वाध्याय-दशा को छोड़ कर मर्यादापूर्वक शास्त्रों का अध्ययन, वाचन या अध्यापन करना स्वाध्याय है। स्वाध्याय के पांच भेद हैं(१) वाचना-शिष्य को या जिज्ञासु साधक को शास्त्र और उनका अर्थ पढ़ाना, वाचना देना या स्वयं वाचना करना। (२) पृच्छना-वाचना करने या वाचना लेने के बाद उसमें सन्देह होने पर या समझ में न आने पर अथवा पहले सीखे हुए शास्त्रीय ज्ञान या तात्त्विक ज्ञान में शंका होने पर योग्य अधिकारी से प्रश्न करना-पूछना पृच्छना है। (३) परिवर्तना-पढ़ा या सीखा हुआ ज्ञान विस्मृत न हो जाए, इसलिए उसकी बार-बार आवृत्ति करना। (४) अनुप्रेक्षा–सीखे हुए शास्त्र का अर्थ विस्मृत न हो जाए, इसलिए उसका बार-बार मनन-चिन्तन एवं स्मरण करना। (५) धर्मकथा—उपर्युक्त चारों प्रकारों से शास्त्रों का अच्छा अध्ययन हो जाने पर श्रोताओं को शास्त्रों का व्याख्यान सुनाना, प्रवचन करना। ध्यान : प्रकार और भेद-प्रभेद
२३७. से किं तं झाणे? १. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भा. २ (मू.पा.टि.), पृ. १०६६
(ख) भगवतीसूत्र (हिन्दी-विवेचन) भा.७, पृ. ३५१८ २. (क) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा.७, पृ. ३५१९
(ख) तत्त्वार्थसूत्र अ. ९. सू. २४-२५