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________________ ४८०] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! जहन्नेणं चउरासीतिं वाससहस्साइं, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ। [१६८ प्र.] भगवन् ! परिहारविशुद्धिकसंयतों का अन्तर कितने काल का होता है? [१६८ उ.] गौतम! उनका अन्तर जघन्य चौरासी हजार वर्ष और उत्कृष्ट (देशोन) अठारह कोड़ाकोड़ी सागरोगम का है। १६९. सुहुमसंपरागाणं जहा नियंठाणं (उ०६ सु० २१३)। [१६९] सूक्ष्मसम्परायसंयतों का अन्तर (उ.६, सू. २१३ के उक्त) निर्ग्रन्थों के समान है। १७०. अहक्खयाणं जहा सामाइयसंजयाणं। [ दारं ३०] [१७०] यथाख्यातसंयतों का अन्तर सामायिकसंयतों के समान है। [तीसवाँ द्वार] विवेचन—संयतों का अन्तरकाल : छेदोपस्थापनीयसंयत एवं संयतों का अन्तर–अन्तरद्वार में छेदोपस्थापनीयसंयत का जो अन्तरकाल बताया है, उसे यों समझना चाहिए कि अवसर्पिणीकाल के दुःषमा नामक पंचम आरे तक छेदोपस्थापनीयचारित्र रहता है। उसके बाद दुःषम-दुःषमा नामक इक्कीस हजार वर्ष के छठे आरे में तथा उत्सर्पिणीकाल के इक्कीस हजार वर्ष-परिमित प्रथम आरे में तथा इक्कीस हजार वर्षपरिमित द्वितीय आरे में छेदोपस्थापनीयचारित्र का अभाव होता है। इस प्रकार २१+२१.+२१-६३००० वर्ष का जघन्य अन्तरकाल छेदोपस्थापनीयसंयतों का होता है। और इसी का उत्कृष्ट अन्तरकाल अठारह कोटाकोटि सागरोपम. का होता है। वह इस प्रकार है-उत्सर्पिणीकाल के चौवीसवें तीर्थंकर के तीर्थ तक छेदोपस्थापनीयचारित्र होता है। उसके बाद दो कोटाकोटि-प्रमाण चतुर्थ आरे में, तीन कोटाकोटि-प्रमाण पंचम आरे में और चार कोटाकोटि-प्रमाण छठे आरे में तथा इसी प्रकार अवसर्पिणीकाल के चार कोटाकोटिसागरोपम-प्रमाण प्रथम आरे में, तीन कोटाकोटि-सागरोपम-प्रमाण दूसरे आरे में और दो कोटाकोटि-सागरोपमप्रमाण तीसरे आरे में छेदोपस्थापनीयचारित्र नहीं होता। परन्तु उसके पश्चात् अवसर्पिणीकाल के तृतीय आरे के पिछले भाग में प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ में छेदोपस्थापनीयचारित्र होता है । इस दृष्टि से छेदोपस्थापनीयसंयतों का उत्कृष्ट अन्तरकाल १८ कोटाकोटि सागरोपम होता है। इसमें थोड़ा-सा काल कम रहता है और जघन्य अन्तर में थोड़ा बढ़ता है, परन्तु वह अत्यल्प होने से उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की है। __ अवसर्पिणीकाल के पांचवें और छठे आरे तथा उत्सर्पिणीकाल का पहला और दूसरा आरा इक्कीसइक्कीस हजार वर्ष का होता है । इन चारों में परिहारविशुद्धिचारित्र नहीं होता। इसलिए परिहारविशुद्धिकसंयतों का जघन्य अन्तरकाल चौरासी हजार वर्ष का है। यहाँ अन्तिम तीर्थंकर के पश्चात् पांचवें आरे में परिहारविशुद्धिचारित्र का काल कुछ अधिक और अवसर्पिणीकाल के तीसरे आरे में परिहारविशुद्धिचारित्र अंगीकार करने से पूर्व का काल अल्प होने से उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की गई है। परिहारविशुद्धिचारित्र का उत्कृष्ट अन्तर १८ कोटीकोटि सागरोपम का होता है। उसकी संगति छेदोपस्थापनीयचारित्र के समान जाननी चाहिए। १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९१८
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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