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________________ संयम रखता हूँ और आहार से नियमित रहकर सत्य से मन के दोषों की गोडाई करता हूँ। अंगुत्तरनिकाय दिट्ठवजसुत्त में तथागत ने कहा कि किसी तप या व्रत को करने से किसी के कुशल धर्म की अभिवृद्धि होती है और अकुशल धर्म नष्ट होते हैं तो उसे वह तप आदि अवश्य करना चाहिये। तथागत बुद्ध ने स्वयं कठिनतम तप तपा था। उनका तपोमय जीवन इस बात का ज्वलन्त प्रतीक है कि बौद्धसाधना में तप का विशिष्ट स्थान रहा है। बुद्ध मध्यममार्गी थे। इस कारण उनके द्वारा प्रतिपादित तप भी मध्यममार्गी ही रहा। उसमें उतनी कठोरता नहीं आ पाई। विस्तार भय से हम अन्य आजीवक प्रभृति परम्परा में जो तप का स्वरूप रहा और विभिन्न परम्पराओं ने तप का विविध दृष्टियों से जो वर्गीकरण किया, उस पर यहाँ चिन्तन नहीं कर रहे हैं। किन्तु संक्षेप में यही बताना चाहते हैं कि जैनपरम्परा ने जो तप का विश्लेषण किया है उस तप का उद्देश्य एकान्त आध्यात्मिक उत्कर्ष करना है। आध्यात्मिक उत्कर्ष के लिये उसने ज्ञानसमन्वित तप को महत्त्व दिया है। जिस तप के पीछे समत्व की साधना नहीं है, भेद-विज्ञान का दिव्य आलोक जगमगा नहीं रहा है, वह तप नहीं ताप है/संताप है/परिताप है। श्रमण भगवान महावीर ने कहा-एक अज्ञानी साधक एक-एक महीने तक तपस्या करता है और उस तप की परिसमाप्ति पर कुशाग्र जितना अन्न ग्रहण करता है। वह साधक ज्ञानी की सोलहवीं कला के बराबर भी धर्म का आचरण नहीं करता। तप का प्रयोजन आत्म-परिशोधन है, न कि देह-दण्डन । जब हमें घी को तपाना होता है तो उसे पात्र में डालकर ही तपाया जा सकता है, इसीलिए घृत के साथ-साथ पात्र भी तप जाता है, जबकि हमारा हेतु तो घृत तपाना ही होता है। इसी प्रकार जब कोई तपस्वी साधक तपश्चर्या में तल्लीन होता है तो उसकी तपस्या का हेतु होता है—आत्मा को शोधना, किन्तु आत्मा को तपाने/शोधने की इस प्रक्रिया में शरीर स्वतः ही तप जाता है। चेष्टा आत्मशोधन की है किन्तु शरीर आत्मा का भाजन/पात्र होने से तपता है। जिस तप में मानसिक संक्लेश हो, पीड़ा हो, वह तप नहीं है । तप में आत्मा को आकुलता नहीं होती, क्योंकि तप तो आत्मा का आनन्द है। तप जागृत आत्मा की अनुभूति है। इससे मन की मलीनता नष्ट होती है, वासनाएं शिथिल होती हैं, चेतना में नये आनन्द का आयाम खुल जाता है और नित्य नूतन अनुभूति होने लगती है । यह है तप का जीवन्त, जागृत और शास्वत स्वरूप। तप एक ऐसी उष्मा है, जो विकार को नष्ट कर आत्मा को वीतराग बनाती है। परीषह : एक चिन्तन भगवतीसूत्र शतक ८ उद्देशक ८ में गणधर गौतम की जिज्ञासा पर भगवान् महावीर ने परिषह के २२ प्रकार बताये हैं। परीषह का अर्थ है-कष्टों को समभावपूर्वक सहन करना। परीषह में जो कष्ट सहन किये जाते १. कासिभारद्वाजसुत्त, सुत्तनिपात ४/२ २. दिट्ठवज्जसुत्त-अंगुत्तरनिकाय भगवान् बुद्ध (धर्मानन्द कोसाम्बी) पृ.६८-७० मासे मासे तु जो बालो कुसग्गेणं तु भुंजए। न सो सुयक्खायधम्मस्स कलं अग्घ सोलसिं॥ -उत्तराध्ययन, ९/४४ तुलनेयमासे मासे कुसग्गेन वालो भुंजेथ भोजनं। न सो संखतधम्मानं कलं अग्घति सोलंसि॥ –धम्मपद, ७० [५७ ]
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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