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उत्तराध्ययन में व्युत्सर्ग के अर्थ में ही कायोत्सर्ग का प्रयोग हुआ है। कायोत्सर्ग व्युत्सर्ग है, पर भगवती में व्युत्सर्ग तप के दो भेद बताये हैं—१. द्रव्यव्युत्सर्ग और २. भावव्युत्सर्ग। द्रव्यव्युत्सर्ग के चार प्रकार हैं१. गुणव्युत्सर्ग २. शरीरव्युत्सर्ग ३. उपधिव्युत्सर्ग ४. भक्तपाणव्युत्सर्ग। इसी प्रकार भाव व्युत्सर्ग के तीन भेद हैं— १. कषायव्युत्सर्ग २. संसारव्युत्सर्ग और ३. कर्मव्युत्सर्ग। साधक पहले द्रव्य व्युत्सर्ग करता है । द्रव्यव्युत्सर्ग से वह आहार, वस्त्र, पात्र और शरीर पर के ममत्व को कम करता है। व्युत्सर्ग में सबसे प्रमुख कायोत्सर्ग है। काया को धारण करते हुए भी काया की अनुभूति व ममता से मुक्त हो जाना एक बड़ी साधना है। एतदर्थ ही 'वोसट्ठकाए, वोसट्ठचत्तदेहे' जैसे विशेषण साधक के लिये प्रयुक्त हुए हैं। जिसने कायोत्सर्ग सिद्ध कर लिया, वह अन्य व्युत्सर्ग भी सहज रूप से कर लेता है। ___ यह स्मरण रखना होगा कि जैन तप:साधना का जो पवित्र पथ है, उसमें हठयोग नहीं है। उस तप में किसी भी प्रकार का तन और मन के साथ बलात्कार नहीं होता अपितु धीरे-धीरे तन और मन को प्रबुद्ध किया जाता है
और प्रसन्नता के साथ तप की आराधना की जाती है। जैनदृष्टि से तप का लक्ष्य आत्मतत्त्व की उपलब्धि है। तप से साधक का अन्तिम लक्ष्य, जो मोक्ष है, उसकी उपलब्धि होती है।
तप के सम्बन्ध में वैदिक-परम्परा में भी चिन्तन किया गया है। वैदिक ऋषियों ने लिखा है कि तप से ही वेद उत्पन्न हुआ है। तप से ही ऋत् और सत्य उत्पन्न हुए हैं। तप से ही ब्रह्म की अन्वेषणा की जा सकती है । तप से ही मृत्यु पर विजय-वैजयन्ती फहराई जा सकती है। तप से ही लोक पर विजय प्राप्त की जा सकती है।' आचार्य मनु ने लिखा है-जो कुछ भी दुर्लभ और दुस्तर इस संसर में है वह सब तपस्या से ही प्राप्य है। तप की शक्ति को कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता है। इस तरह वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में तप की महिमा और गरिमा का उटंकण हुआ है।
बौद्धपरम्परा में भी तप का वर्णन है। सुत्तनिपात के महामंगलसुत्त में तथागत बुद्ध ने कहा—तप, ब्रह्मचर्य, आर्य सत्यों का दर्शन और निर्वाण का साक्षात्कार, ये उत्तम मंगल हैं। सुत्तनिपात के काशीभारद्वाज सुत्त में तथागत बुद्ध ने कहा- मैं श्रद्धा का बीज वपन करता हूँ, उस पर तपश्चर्या की वर्षा होती है, शरीर और वाणी से
उत्तराध्यायन, ३०/३६ ___भगवतीसूत्र, २५/७
मनुस्मृति ११, २४६ ऋग्वेद १०, १९०.१ मुण्डक १.१.८ ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत-वेद शतपथब्राह्मण ३.४, ४, २७ यद् दुस्तरं यद् दुरापं दुर्ग यच्च दुष्करम्। सर्वं तु तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ॥ -मनुस्मृति ११, २३७ महामंगलसुत्त, सुत्तनिपात १६/१०
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