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________________ पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक- ६ ] [ ४१९ जिस प्रकार षट्स्थानपतित हीन का निरूपण किया गया है, उसी प्रकार षट्स्थानपतित अधिक (वृद्धि) का भी समझना चाहिए । यह सामायिकचारित्र-पर्याय के षट्स्थानपतित का उदाहरण है । इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय आदि चारित्रों पर तथा पुलाक आदि निर्ग्रन्थों पर घटित कर लेना चाहिए । परस्थान के साथ षट्स्थानपतित — परस्थान का अर्थ है— विजातीय। जैसे कि पुलाक, पुलाक के साथ तो सजातीय है, किन्तु बकुश आदि के साथ विजातीय है । पुलाक तथाविध विशुद्धि के अभाव से बकुश से हीन है। जिस प्रकार पुलाक को पुलाक के साथ षट्स्थानपतित कहा है, उसी प्रकार कषायकुशील की अपेक्षा भी षट्स्थानपतित समझना चाहिए । पुलाक, कषायकुशील से अविशुद्ध संयमस्थान में रहने के कारण कदाचित् हीन भी होता है । समान-संयमस्थान में रहने पर कदाचित् समान भी होता है, अथवा शुद्धतर संयमस्थान में रहने पर कदाचित् अधिक भी होता है। पुलाक और कषायकुशील के सर्वजघन्य संयमस्थान सबसे नीचे हैं। वहाँ से वे दोनों असंख्य संयमस्थानों तक साथ-साथ जाते हैं, क्योंकि वहाँ तक उन दोनों के समान अध्यवसाय होते हैं तत्पश्चात पुलाक हीनपरिणामं वाला होने से आगे के संयमस्थानों में नहीं जाता, किन्तु वहाँ रुक जाता है । तत्पश्चात् कषायकुशील असंख्य संयमस्थानों तक ऊपर जाता है। वहाँ से कषायकुशील, प्रतिसेवनाकुशील और बकुश, ये तीनों साथसाथ असंख्यसंयमस्थानों तक जाते हैं । फिर वहाँ बकुश रुक जाता है। इसके बाद प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील, ये दोनों असंख्य संयमस्थानों तक जाते हैं । वहाँ जाकर प्रतिसेवनाकुशील रुक जाता है । फिर कषायकुशील उससे आगे अंसख्य संयमस्थानों तक जाता है । फिर वहाँ जाकर वह भी रुक जाता । तदनन्तर निर्ग्रन्थ और स्नातक, ये दोनों उससे आगे एक संयमस्थान तक जाते हैं। इस प्रकार पुलाक एवं कषायकुशील के अतिरिक्त शेष सभी निर्ग्रन्थों के चारित्र - पर्यायों से अनन्तगुणहीन होता है । बकुश, पुलाक से विशुद्धतर परिणाम वाला होने से अनन्तगुण अधिक होता है । बकुश, बकुश के साथ विचित्र परिणामवाला होने से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है । प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील से भी इसी प्रकार हीनादि होता है । निर्ग्रन्थ और स्नातक से तो वह हीन ही होता है । प्रतिसेवनाकुशील की वक्तव्यता बकुश के समान है । कषायकुशील भी बकुश के समान है, पुलाक से बकुश अधिक कहा है, किन्तु यहाँ पर कषायकुशील, पुलाक के साथ हीनादि षट्स्थानपतित कहना चाहिए। क्योंकि उसके परिणाम पुलाक की अपेक्षा हीन, तुल्य और अधिक होते हैं। सोलहवाँ योगद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में योगों की प्ररूपणा ११७. पुलाए णं भंते! किं सजोगी होज्जा, अजोगी होज्जा ? गोया ! सजोगी होज्जा, नो अजोगी होज्जा । १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९०० - ९०१ २. भगवती अ. वृत्ति, पत्र ९०१
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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