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विकारों को जलाकर भस्म कर देता है और साथ ही अन्तर्मानस में रहे हुए सघन अन्धकार को भी नष्ट कर देता है । इसलिए तप ज्वाला भी है और ज्योति भी है। तप जीवन को सौम्य, सात्विक और सर्वांगपूर्ण बनाता है । तप की साधना से आध्यात्मिक परिपूर्णता प्राप्त होती है। तप ऐसा कल्पवृक्ष है जिसकी निर्मल छत्रछाया में साधना के अमृतफल प्राप्त होते हैं। तप से जीवन ओजस्वी, तेजस्वी और प्रभावशाली बनता है । तप के सम्बन्ध में भगवतीसूत्र शतक १४, उद्देशक ७ में निरूपण है। वहाँ पर तप के दो मुख्य प्रकार बताये हैं - १. बाह्य तप और २. आभ्यन्तर तप । बाह्य तप के छह प्रकार बताये हैं और आभ्यन्तर तप के भी छह प्रकार हैं। जो तप बाहर दिखलाई दे, वह बाह्य तप है। बाह्य तप में देह या इन्द्रियों का निग्रह किया जाता है। बाह्य तप में बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा रहती है जबकि आभ्यन्तर तप में अन्त:करण के व्यापारों की प्रधानता होती है। यह जो वर्गीकरण है वह तप की प्रक्रिया और स्थिति को समझाने के लिए किया गया है। तप का प्रारम्भ होता है बाह्य तप से और उसकी पूर्णता होती है आभ्यन्तर तप से । तप का एक छोर बाह्य है और दूसरा छोर आभ्यन्तर है। आभ्यन्तर तप के बिना बाह्य तप में पूर्णता नहीं आती। बाह्य तप से जब साधक का मन और तन उत्तप्त हो जाता है तो अन्तर में रही हुई मलीनता को नष्ट करने के लिए साधक प्रस्तुत होता है और वह अन्तर्मुखी बनकर आभ्यन्तर साधना में लीन हो जाता है। बाह्य तप के प्रकार निम्नानुसार हैं
अनशन—बाह्य तप में इसका प्रथम स्थान है। यह तप अधिक कठोर और दुर्घर्ष है। भूख पर विजय प्राप्त करना अनशन तप का मूल उद्देश्य है। अनशन तप में भूख को जीतना और मन को निग्रह करना आवश्यक है । अनशन से तन की ही नहीं मन की भी शुद्धि होती है। अनशन केवल देहदण्ड ही नहीं अपितु आध्यात्मिक
की उपलब्धिका महान् उद्देश्य भी उसमें सन्निहित है । भगवद्गीता में भी लिखा है कि आहार का परित्याग करने से इन्द्रियों के विषय-विकार दूर हो जाते हैं और मन भी पवित्र हो जाता है। महर्षि ने मैत्रायणी आरण्यक में लिखा है कि अनशन से बड़ा कोई तप नहीं है। साधारण मानव के लिए यह तप बड़ा ही कठिन है। उसे सहन और वहन करना कठिन ही नहीं कठिनतर है।"
में
अनशन तप के भी दो प्रकार हैं। एक इत्वरिक और दूसरा यावत्कालिक । इत्वरिक तप एक निश्चित समयावधि होती है। एक दिन से लगाकर छह मास तक का यह तप होता है। दूसरा प्रकार यावत्कालिक तप जीवन पर्यन्त के लिए किया जाता है। यावत्कालिक अनशन के पादपोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान — ये दो भेद हैं। भक्तप्रत्याख्यान में आहार के परित्याग के साथ ही निरन्तर स्वाध्याय, ध्यान, आत्मचिन्तन में समय व्यतीत किया जाता है। पादपोपगमन में टूटे हुए वृक्ष की टहनी की भांति अचंचल, चेष्टारहित एक ही स्थान पर जिस मुद्रा में प्रारम्भ में स्थिर हुआ, अन्तिम क्षण तक उसी मुद्रा में अवस्थित रहना होता हैं। यदि नेत्र खुले हैं तो बन्द नहीं करना । यदि बन्द है तो खोलना नहीं हैं। जिसका वज्रऋषभनाराचसंहनन हो वही पादपोपगमन संथारा कर सकता है। चौदह पूर्वों का जब विच्छेद होता है तभी पादपोपगमन अनशन का भी विच्छेद हो जाता है।
भगवद्गीता, २/५९
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२.
३.
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
मैत्रायणी आरण्यक १० / ६२
पढमंमि य संघयणे वट्टंतो सेलकुट्ट समाणो ।
तेसिं पि अ वुच्छेओ चउद्दसपुवीण वुच्छेए ॥ उववाईसूत्र, तप अधिकार
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