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आलोचना करने वाले के दस गुण भी बताए गये हैं तथा जिस आचार्य या गुरु के सामने आलोचना करनी हो उनके आठ गुण भी आगम में प्रतिपादित हैं। वर्तमान युग में आलोचना शब्द अन्य अर्थ में व्यवहृत है—किसी की नुक्ता-चीनी करना, टीका-टिप्पणी करना या किसी के गुण-दोष की चर्चा करना। पर प्रस्तुत आगम में जो शब्द आया है, वह दूसरों के गुण-दोषों के सम्बन्ध में नहीं है, पर आत्मनिन्दा के अर्थ में है। आत्मनिन्दा करना सरल नहीं, कठिन और कठिनतर है। परनिन्दा करना, दूसरे के दोषों को निहारना सरल है। आत्म-आलोचना वही व्यक्ति कर सकता है जिसमें सरलता हो, किसी भी प्रकार का छिपाव न हो, जिसका जीवन खुली पुस्तक की तरह हो। व्यक्ति पाप करके भी यह सोचता है कि मैं पाप को स्वीकार करूंगा तो मेरी कीर्ति, मेरा यश, मेरी प्रतिष्ठा धूमिल हो जायेगी। वह पाप करके भी पाप को छिपाना चाहता है। जिसे स्वास्थ्य की चिन्ता है, वह पहले से ही सावधान रहता है। यदि रोग हो गया है, उसके बाद यह सोचे कि मैं डॉक्टर के पास जाऊंगा और लोगों को यह पता चल जायेगा कि मैं रोगी हूँ। इस प्रकार विचार कर वह अपना रोग छिपाता है तो वह व्यक्ति स्वस्थ नहीं हो सकता। इसी प्रकार जीवन में पवित्रता तभी रहेगी जब दोष को प्रकट कर उसक यथोचित प्रायश्चित्त किया जाए। आलोचना करने में साधक माया, निदान और मिथ्यादर्शन रूप तीन शल्यों को अन्तर्मानस से निकाल दूर कर देता है। कांटा निकलने से हृदय में सुखानुभूति होती है, वैसे ही पाप को प्रकट करने से भी जीवन निःशल्य बन जाता है। जो साधक पाप करके भी आलोचना नहीं करता है, उसकी सारी आध्यात्मिक क्रियाएं बेकार हो जाती हैं। कोई साधक यह सोचे कि मुझे तो सभी शास्त्रों का परिज्ञान है अतः मुझे किसी के पास जाकर आलोचना करने की क्या आवश्यकता है ? पर यह सोचना ठीक नहीं है। जिस प्रकार निपुण वैद्य भी अपनी चिकित्सा दूसरों से करवाता है, दूसरे वैद्य के कथनानुसार कार्य करता है, वैसे ही आचार्य को भी यदि दोष लग जाता है तो दोष की विशुद्धि दूसरों की साक्षी से ही करनी चाहिये। इस प्रकार करने से हृदय की सरलता प्रकट होती है और दूसरों को भी सरल और विशुद्ध बनाया जा सकता है।
आलोचना किसके पास करनी चाहिये ? इस प्रश्न का समाधान व्यवहारसूत्र में मिलता है। सर्वप्रथम आलोचना आचार्य और उपाध्याय के समक्ष करनी चाहिये। उनके अभाव में साम्भोगिक बहुश्रुत श्रमण के पास करनी चाहिये। उनके अभाव में समान रूप वाले बहुश्रुत साधु के पास। उनके अभाव में जिसने पूर्व में संयम पाला हो और जिसे प्रायश्चित्तविधि का ज्ञान हो, उस पडिवाई (संयमच्युत) श्रावक के पास। उसका भी अभाव होने पर जिनभक्त यक्ष आदि के पास। इनमें से सभी का अभाव हो तो ग्राम या नगर के बाहर पूर्व-उत्तर दिशा में मुँह कर विनीत मुद्रा में अपने अपराधों और दोषों का स्पष्ट उच्चारण करना चाहिये और अरिहन्त-सिद्ध की साक्षी से स्वतः ही शुद्ध हो जाना चाहिये। तप : एक विश्लेषण ___तप भारतीय साधना का प्राणतत्त्व है। जैसे शरीर में ऊष्मा जीवन के अस्तित्व का द्योतक है वैसे ही साधना में तप उसके दिव्य अस्तित्व को अभिव्यक्त करता है । तप के बिना न निग्रह होता है, न अभिग्रह होता है। तप दमन नहीं, शमन है । तप केवल आहार का ही त्याग नहीं, वासना का भी त्याग है । तप अन्तर्मानस में पनपते हुए
१. व्यवहारसूत्र, उद्देशक १, बोल ३४ से ३९
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