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________________ पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक - ३ ] १०७. उड्डमहायताओ वि एवं चेव, नवरं नो कलियोयाओ, सेसं तं चेव । [१०७] ऊर्ध्व और अधो लम्बी अलोकाकाश श्रेणियाँ भी इसी प्रकार हैं किन्तु वे कल्योज रूप नहीं हैं, शेष सब पूर्ववत् है । विवेचन — श्रेणियों में कृतयुग्मादि प्ररूपणा — रुचक प्रदेशों से प्रारम्भ होकर जो पूर्व और दक्षिण • गोलार्द्ध है, वह पश्चिम और उत्तर गोलार्द्ध के बराबर है । इसलिए पूर्व-पश्चिम श्रेणियाँ और दक्षिण-उत्तर श्रेणियाँ समसंख्यक प्रदेशों वाली हैं। उनमें से कोई कृतयुग्म प्रदेशों वाली हैं तथा कोई द्वापरयुग्म प्रदेशों वाली हैं, किन्तु त्र्योज और कल्योज प्रदेशों वाली नहीं हैं। इसके लिए प्रदेशों की असद्भाव स्थापना बता कर इसी बात को स्पष्ट कर दिया है। अलोकाकाश की श्रेणियों के प्रदेशों में कृतयुग्मादि चारों भेद पाए जाते हैं। इसमें वस्तुस्वभाव ही मुख्य हैं। श्रेणी के प्रकारान्तर के सात भेद [ ३१९ १०८. कति णं भंते ! सेढीओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! सत्त सेढीओ पन्नत्ताओ, तं जहा — उज्जुआयता, एकतोवंका, दुहतोवंका, एगओखहा, दुहतोखहा, चक्कवाला, अद्धचक्कवाला । [१०८ प्र.] भगवन् ! श्रेणियाँ कितनी कही हैं ? [१०८ उ.] गौतम ! श्रेणियाँ सात कही हैं । यथा – (१) ऋज्वायता, (२) एकतोवक्रा, (३) उभयतोवक्रा, (४) एकत: खा, (५) उभयतःखा, (६) चक्रवाल और (७) अर्द्धचक्रवाल । विवेचन — श्रेणी : उसके प्रकार और स्वरूप — श्रेणियों का वर्णन इससे पूर्व किया जा चुका है। किन्तु यहाँ प्रकारान्तर से श्रेणियों का वर्णन किया गया है। यहाँ उनके सात भेद बताए हैं। जिसके अनुसार जीव और पुद्गलों की गति होती है, उस आकाशप्रदेश की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं। जीव और पुद्गल एक स्थान से दूसरे स्थान पर श्रेणी के अनुसार ही जाते हैं, विश्रेणी ( विरुद्ध श्रेणी) से गति नहीं होती। १. ऋज्वायता — जिस श्रेणी के जीव ऊर्ध्वलोक आदि से अधोलोक आदि में सीधे चले जाते हैं, उसे ऋज्वायता श्रेणी कहा जाता है। उस श्रेणी से जाने वाला जीव एक ही समय में गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाता है । रेखाचित्र [ - ] इस प्रकार है । २. एकतोवक्रा — जिस श्रेणी से जीव पहले सीधा जाए और फिर वक्रगति प्राप्त करके दूसरी श्रेणी में प्रवेश करे, उसे एकतोवक्रा कहते हैं । इस श्रेणी से जाने वाले जीव को दो समय लगते हैं । रेखाचित्र / इस प्रकार है। 1 ३. उभयतोवक्रा — जिस श्रेणी से जाने वाला जीव दो बार वक्रगति करे, उसे उभयतोवक्रा कहते हैं । १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८६७ (ख) भगवती (हिन्दी विवेचन) भा. ७, पृ. ३२४७
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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