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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [७६ उ.] गौतम ! वे संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, किन्तु अनन्त हैं। ७७. एवं पाईणपडीणायताओ वि। [७७] इसी प्रकार पूर्व और पश्चिम में लम्बी अलोकाकाश-श्रेणियों के विषय में भी समझना चाहिए। ७८. दाहिणुत्तरायताओ वि। [७८] दक्षिण और उत्तर में लम्बी अलोकाकाश-श्रेणियों सम्बन्धी कथन भी इसी प्रकार है। ७९. एवं उड्डमहायताओ वि। [७९] ऊर्ध्व और अधोदिशा में लम्बी अलोकाकाश की श्रेणियाँ भी इसी प्रकार हैं।
विवेचन-श्रेणी : स्वरूप, प्रकार और संख्यातादि निरूपण-यद्यपि श्रेणी पंक्तिमात्र को कहते हैं, तथापि यहाँ श्रेणी शब्द से आकाशप्रदेश की पंक्तियाँ विवक्षित हैं। श्रेणी के सामान्यतया यहाँ चार प्रकार बताए हैं—(१) लोकाकाश या अलोकाकाश की विवक्षा किये बिना सामान्य श्रेणी (२) पूर्व और पश्चिम में, दक्षिण और उत्तर में तथा ऊर्ध्व और अधोदिशा में लम्बी श्रेणी, (३) लोकाकाश-सम्बन्धी पूर्वोक्त चार श्रेणियाँ
और (४) अलोकाकाश-सम्बन्धी पूर्वोक्त चार प्रकार की श्रेणियाँ । द्रव्यार्थरूप से सामान्य आकाशप्रदेश की श्रेणियाँ अनन्त हैं। लोकाकाश की श्रेणियाँ असंख्यात हैं, क्योंकि लोकाकाश असंख्यात-प्रदेशात्मक ही है। अलोकाकाश की श्रेणियां अनन्त हैं, क्योंकि अलोकाकाश अनन्त-प्रदेशात्मक है। श्रेणियों तथा लोक-अलोकाकाशश्रेणियों में प्रदेशार्थ से यथायोग्य संख्यातादि प्ररूपणा
८०. सेढीओ णं भंते ! पएसट्ठयाए कि संखेजाओ० ? जहा दव्वट्ठयाए तहा पदेसट्ठयाए वि जाव उड्डमहायताओ, सव्वाओ अणंताओ। [८० प्र.] भगवन् ! आकाश की श्रेणियाँ प्रदेशार्थरूप से संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं ?
[८० उ.] गौतम ! द्रव्यार्थता की वक्तव्यता के समान प्रदेशार्थता की वक्तव्यता; यावत् ऊर्ध्व और अधोदिशा में लम्बी सभी श्रेणियाँ अनन्त हैं; यहाँ तक कहना चाहिए।
८१. लोयागाससेढीओ, णं भंते ! पदेसट्ठयाए कि संखेजाओ० पुच्छा। गोयमा ! सिय असंखेजाओ, सिय असंखेजाओ, नो अणंताओ। [८१ प्र.] भगवन् ! लोकाकाश की श्रेणियाँ प्रदेशार्थरूप से संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न। [८१ उ.] गौतम ! वे कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात हैं, किन्तु अनन्त नहीं हैं। ८२. एवं पादीणपडीणायताओ वि, दाहिणुत्तरायताओ वि। [८२] पूर्व और पश्चिम में लम्बी श्रेणियाँ तथा उत्तर और दक्षिण में लम्बी श्रेणियाँ भी इसी प्रकार हैं। ८३. उड्डमहायताओ नो संखेजाओ, असंखेजाओ, नो अणंताओ। [८३] ऊर्ध्व और अधो दिशा में लम्बी लोकाकाश की श्रेणियाँ संख्यात नहीं और अनन्त भी नहीं,
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८६५