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________________ ३०८] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ४७. परिमंडले णं भंते ! संठाणे पदेसट्ठताए किं कडजुम्मे० पुच्छा। गोयमा ! सिय कडजुम्मे, सिय तेयोगे, सिय दावरजुम्मे, सिय कलियोगे। [४७ प्र.] भगवन् ! परिमण्डल-संस्थान प्रदेशार्थरूप से कृतयुग्म है ? इत्यादि प्रश्न। [४७ उ.] गौतम ! वह कदाचित् कृतयुग्म है, कदाचित् त्र्योज है, कदाचित् द्वारपयुग्म है, और कदाचित् कल्योज है। ४८. एवं जाव आयते। [४८] इसी प्रकार आयत-संस्थान पर्यन्त जानना चाहिए। ४९. परिमंडला णं भंते ! संठाणा पदेसट्ठताए किं कडजुम्मा० पुच्छा। गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा। विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि, तेयोगा वि, दावरजुम्मा वि, कतियोगा वि। [४९ प्र.] भगवन् ! (अनेक) परिमण्डल-संस्थान प्रदेशार्थरूप से कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न । __ [४९ उ.] गौतम ! ओघादेश से—वे कदाचित् कृतयुग्म हैं, यावत् कदाचित् कल्योज होते हैं। विधानादेश से वे कृतयुग्म भी हैं, त्र्योज भी हैं, द्वापरयुग्म भी हैं और कल्योज भी हैं। . ५०. एवं जाव आयता। [५०] इसी प्रकार (अनेक) आयत-संस्थान तक जानना चाहिए। विवेचन—परिमण्डलादि संस्थान का द्रव्यरूप से विचार—परिमण्डल-संस्थान द्रव्यरूप से एक है और एक वस्तु का चार-चार से अपहार (भाग) नहीं होता। इस कारण एकत्व के विचार करने में कृतयुग्मादि का व्यपदेश नहीं होता, क्योंकि एक ही शेष रहता है, अत: वह कल्योजरूप है। इसी प्रकार वृत्तादि संस्थान के विषय में भी समझना चाहिए। सामान्य रूप से परिमंडलादि संस्थान का विचार–सामान्य रूप से यदि सभी परिमण्डल आदि संस्थानों का विचार करते हैं तब उनका चार-चार से अपहार करते हुए किसी समय कुछ भी बाकी नहीं रहता, कदाचित् तीन, कदाचित् दो और कदाचित् एक शेष रहता है। इसलिए कदाचित् कृतयुग्म होते हैं, यावत् कदाचित् कल्योज भी होते हैं। जब विधानादेश से—अर्थात्—विशेष दृष्टि से समुचित संस्थानों में से एकएक संस्थान का विचार किया जाता है, तब चार से अपहार न होने के कारण एक ही शेष रहता है। अत: वह कल्याज रूप होता है। प्रदेशार्थरूप से परिमण्डलादि संस्थान का विचार—जब परिमण्डलादि संस्थान का प्रदेशार्थ रूप से विचार किया जाता है, तब वीस आदि क्षेत्रप्रदेशों में जो प्रदेश परिमण्डलादि संस्थानरूप में व्यवस्थित होते हैं, उनकी अपेक्षा से वीस आदि प्रदेशों का कथन किया जाता है। उन प्रदेशों में चार-चार का अपहार करते हुए जब चार शेष रहते हैं, तब कृतयुग्म होते हैं । जब तीन शेष रहते हैं, तब त्र्योज होते हैं, दो शेष रहने पर द्वापरयुग्म १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८६३
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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