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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-३]
[३०१ - [३२ प्र.] भगवन् ! जहाँ यवाकर अनेक वृत्तस्थान हैं, वहाँ परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न।
[३२ उ.] गौतम ! पूर्ववत् जानना। ३३. एवं जाव आयता। [३३] इसी प्रकार आयत तक जानना। ३४. एवं पुणरवि एक्केक्केणं संठाणेणं पंच वि चारेयव्वा जहेव हेट्ठिल्ला जाव आयतेणं। [३४] यहाँ फिर पूर्ववत् प्रत्येक संस्थान के साथ पांचों संस्थानों का आयतसंस्थान तक विचार करना चाहिए। ३५. एवं जाव अहेसत्तमाए। [३५] इसी प्रकार (आगे शर्कराप्रभापृथ्वी से लेकर) अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। ३६. एवं कप्पेसु वि जाव ईसीपब्भाराए पुढवीए। [३६] इसी प्रकार कल्पों (देवलोकों) से ईषत्प्राग्भारापृथ्वी पर्यन्त के लिए जानना चाहिए।
विवेचन परिमण्डलसंस्थान विषयक विश्लेषण—यह समग्र लोक परिमण्डलसंस्थान वाले पुद्गलस्कन्धों से निरन्तर व्याप्त है। उनमें से तुल्यप्रदेशवाले, तुल्यप्रदेशावगाही और तुल्यवर्णादि पर्याय वाले जो-जो परिमण्डल द्रव्य हों, उन सबको कल्पना से एक-एक पंक्ति में स्थापित करना चाहिए। उसके ऊपर और नीचे एक-एक जाति वाले परिमण्डलद्रव्यों को एक-एक पंक्ति में स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार इनमें अल्पबहुत्व होने से परिमण्डलसंस्थान का समुदाय यवाकार बनता है। इनमें जघन्य-प्रादेशिक द्रव्य स्वभावतः अल्प होने से प्रथम पंक्ति छोटी होती है और उसके बाद की पंक्तियाँ अधिक-अधिकतर प्रदेश वाली होने से क्रमश: बड़ी और अधिक बड़ी होती हैं। इसके पश्चात् क्रमश: घटते-घटते अन्त में उत्कृष्ट प्रदेश वाले द्रव्य अत्यन्त अल्प होने से अंतिम पंक्ति अत्यन्त छोटी होती है। इस प्रकार तुल्य प्रदेश वाले और उससे भिन्न परिमण्डल द्रव्यों द्वारा यवाकार क्षेत्र बनता है।
जहाँ एक यवाकृतिनिष्पादक परिमण्डलसंस्थान-समुदाय होता है, उस क्षेत्र में यवाकारनिष्पादक परिमण्डल के सिवाय दूसरे परिमण्डलसंस्थान कितने होते हैं ? यह प्रश्न किया गया है, जिसका उत्तर दिया गया है-वे परिमण्डलसंस्थान अनन्त-अनन्त होते हैं । इसी प्रकार वृत्तादि संस्थानों के विषय में भी समझना चाहिए।'
___ कठिन शब्दार्थ-जवमझे—यवमध्य—यवाकार। १. पाठान्तर- [प्र.] सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए परिमंडला संठाणाo?
[उ.] एवं चेव। एवं जाव-आयया। एवं जाव अहेसत्तमाए। २. [प्र.] सोहम्मे णं भंते ! कप्पे परिमंडला संठाणा०? [उ.] एवं चेव। एवं जाव—अच्चुए।
[प्र.] गेवेजविमाणाणं भंते ! परिमंडलसंठाणा०?
[उ.] एवं चेव। अणुत्तरविमाणेसु वि। एवं इंसिप्पभारांए वि। -श्रीमद्भगवतीसूत्र खण्ड ४, पृ. २०५ ३. श्रीमद्भगवतीसूत्रम् चतुर्थखण्ड (गुजराती अनुवाद), पृ. २०५ ४. भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा.७, पृ. ३२१९