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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
संस्थानों की अनन्तता — पांचों ही संस्थान अनन्त हैं, संख्यात और असंख्यात नहीं हैं । ११. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए परिमंडला संठाणा किं संखेज्जा, असंखेज्जा, अणता ?
गोमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अनंता ।
[११ प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [११ उ.] गौतम ! वे संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, किन्तु अनन्त हैं ।
१२. वट्टा णं भंते ! संठाणा किं संखेज्जा० ?
एवं चेव ।
[१२ प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी में वृत्तसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं ?
[१२ उ.] वे भी पूर्ववत् समझना ।
१३. एवं जाव आयता ।
[१३] इसी प्रकार आयत तक समझना ।
१४. सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवी परिमंडला संठाणा० ?
एवं चेव ।
[१४प्र.] भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी में परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न ।
[१४ उ.] इसी प्रकार पूर्ववत् समझना ।
१५. एवं जाव आयता ।
[१५] इसी प्रकार आगे आयत पर्यन्त (समझना चाहिए।)
१६. एवं जाव अहेसत्तमाए ।
[१६] इसी प्रकार अधः सप्तमपृथ्वी तक समझना चाहिए।
१७. सोहम्मे णं भंते ! कप्पे परिमंडला संठाणा० ?
एवं चेव ।
[१७ प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प में परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न ।
[१७ उ.] पूर्ववत् समझना ।
१८. एवं जाव अच्चुते ।
[१८] (ईशान से लेकर ) अच्युत तक इसी प्रकार कहना । १९. गेविज्जविमाणाणं भंते ! परिमंडला संठाणा० ?
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ आदि), पृ. ९७६