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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक - ३]
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तीन और दो प्रदेशावगाही होता है । इसलिए परिमण्डलसंस्थान बहुतर- प्रदेशावगाही होने से सबसे कम हैं, उनसे वृत्तादि संस्थान अल्प- अल्प प्रदेशावगाही होने से संख्यातगुण अधिक-अधिक होते हैं । अनित्थंस्थसंस्थान वाले पदार्थ, परिमण्डलादि द्वयादि-संयोगी होने से उनसे बहुत अधिक हैं। इसलिए ये उन सबसे असंख्यातगुण अधिक हैं ।
प्रदेश की अपेक्षा अल्पबहुत्व भी इसी प्रकार है, क्योंकि प्रदेश द्रव्यों के अनुसार होते हैं और इसी प्रकार द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ-रूप से भी अल्पबहुत्व जानना चाहिए । किन्तु द्रव्यार्थरूप के अनित्थंस्थसंस्थान से परिमण्डलसंस्थान प्रदेशार्थरूप से असंख्यातगुण हैं ।
कठिनशब्दार्थ—दव्वट्टयाए — द्रव्यरूप अर्थ की अपेक्षा से । पएसट्टयाए — प्रदेशरूप अर्थ की अपेक्षा
से।
संस्थानों के पांच भेद और उनकी अनन्तता का निरूपण
७. कति णं भंते! संठाणा पन्नत्ता ?
गोयमा ! पंच संठाणा पन्नत्ता, तंजहा— परिमंडले जाव आयते ।
[प्र.] भगवन् ! संस्थान कितने प्रकार के कहे गए हैं ?
[७ उ.] गौतम ! संस्थान पांच प्रकार के कहे गए हैं। यथा— परिमण्डल (से लेकर) आयत तक ।
८. परिमंडला णं भंते! संठाणा किं संखेज्जा, असंखेज्जा, अणंता ?
गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अनंता ।
[८ प्र.] भगवन् ! परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं, अथवा अनन्त हैं ?
[८ उ.] गौतम ! वे संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, किन्तु अनन्त हैं ।
९. वट्टा णं भंते! संठाणा किं संखेज्जा० ?
एवं चेव ।
[९ प्र.] भगवन् ! वृत्तसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं, या अनन्त हैं ?
[९] (गौतम ! ) पूर्ववत् (अनन्त) हैं ।
१०. एवं जाव आयता ।
[१०] इसी प्रकार आयतसंस्थान तक जानना चाहिए।
विवेचन — संस्थान के पांच ही भेद क्यों ? — इससे पूर्व संस्थान के छह भेदों की प्ररूपणा की गई है, किन्तु यहाँ रत्नप्रभादि के विषय में संस्थानों की प्ररूपणा करने की इच्छा से पुनः संस्थान सम्बन्धी प्रश्न किया गया है। छठा अनित्थंस्थसंस्थान अन्य संस्थानों के संयोग से होता है । इसलिए यहाँ छठे अनित्थंस्थसंस्थान की विवक्षा न होने से पांच ही संस्थान कहे हैं।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८५८ - २. वही, पत्र ८५८
३. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८५९