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________________ २८०] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सन्निपंचिंदिया अपज्जत्तगा १३ सन्निपंचिंदिया पज्जत्तगा १४। [४ प्र.] भगवन् ! संसारसमापन्नक (संसारी) जीव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [४ उ.] गौतम ! (संसारसमापनके जीव) चोदह प्रकार के कहे गए हैं । यथा—(१) सूक्ष अपर्याप्तक, (२) सूक्ष्म पर्याप्तक, (३) बादर अपर्याप्तक, (४) बादर पर्याप्तक, (५) द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक, (६) द्वीन्द्रिय पर्याप्तक, (७) त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक, (८) त्रीन्द्रिय पर्याप्तक, (९-१०) चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक-पर्याप्तक, (११) असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, (१२) असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, (१३) संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक और (१४) संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक। विवेचन—सूक्ष्म और बादर का स्वरूप और विशेषार्थ—सूक्ष्म-सूक्ष्मनामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर अत्यन्त सूक्ष्म हो, अर्थात् असंख्य शरीर एकत्रित होने पर भी जो चक्षुरिन्द्रिय का विषय न हो, उसे सूक्ष्मशरीर कहते हैं । बादर—बादरनामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर बादर अर्थात् स्थूल हो, उन्हें बादर कहते हैं । पर्याप्तक-अपर्याप्तक-लक्षण–पर्याप्तक—जिस जीव में जितनी पर्याप्तियाँ सम्भव हैं, जब वह उतनी पर्याप्तियाँ उतनी पूर्ण कर लेता है, तब उसे पर्याप्तक' कहते हैं । स्पष्ट शब्दों में कहें तो एकेन्द्रिय (पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय) जीव आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास—इन चार पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेने पर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय उक्त चार पर्याप्तियों और पांचवी भाषापर्याप्ति पूरी कर लेने पर तथा संज्ञी-पंचेन्द्रिय उपर्युक्त पांच पर्याप्तियाँ तथा छठी मनपर्याप्ति पूर्ण कर लेने पर 'पर्याप्तक' कहलाते हैं। जिस जीव की पर्याप्तियाँ पूरी न हो पाई हों, अथवा जो स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूरी होने से पहले ही मरने वाला हो, वह अपर्याप्तक कहलाता है। अपर्याप्त अवस्था में मरने वाला जीव तीन पर्याप्तियाँ पूर्ण करके चौथी श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति अधूरी रहने पर ही मरता है, पहले नहीं, क्योंकि सभी सांसारिक जीव आगामी भव की आयु बांध कर ही मृत्यु प्राप्त करते हैं तथा आयुष्य का बन्ध भी उन्हीं जीवों के होता है, जिन्होंने आहार, शरीर और इन्द्रिय पर्याप्तियाँ पूरी कर ली हों। एकेन्द्रिय के चार भेद-सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्त, ये चार भेद एकेन्द्रियों के होते हैं। द्वीन्द्रियादि के दो-दो भेद-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय के पर्याप्तक और अपर्याप्तक रूप से दो-दो भेद होते हैं । इस प्रकार १४ भेद सांसारिक जीवों के हुए। जघन्य और उत्कृष्ट योग को लेकर संसारी जीवों का अल्पबहुत्व-निरूपण ५. एतेसि णं भंते ! चोद्दसविहाणं संसारसमावनगाणं जीवाणं जहन्नुक्कोगस्स जोगस्स कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवे सुहुमस्स अपजत्तगस्स जहन्नए जोए १, बादरस्स अपजत्तगस्स जहन्नए १. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ७, पृ. ३१९३-३१९४ (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८५३
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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