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होता है। मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियाँ ही आश्रव हैं। मानसिक वृत्ति के साथ शारीरिक और वाचिक क्रियाएं भी चलती हैं। उन क्रियाओं के कारण कर्मा श्रव भी होता रहता है। जिन व्यक्तियों का अन्तर्मानस कषाय से कलुषित नहीं हैं, जिन्होंने कषाय को उपशान्त या क्षीण कर दिया है, उनकी क्रिया के द्वारा जो आश्रव होता है, वह ईर्यापथिक आश्रव कहलाता है। चलते समय मार्ग की धूल के कण वस्त्र पर लगते हैं और दूसरे क्षण वे धूलकण विलग हो जाते है । वही स्थिति कषायरहित क्रियाओं से होती है। प्रथम क्षण में आश्रव होता है तो द्वितीय क्षण में वह निर्जीर्ण हो जाता है । भगवतीसूत्र के तृतीय शतक के तृतीय उद्देशक में भगवान् महावीर ने अपने छठे गणधर मण्डितपुत्र की जिज्ञासा पर क्रिया के पांच प्रकार बताये और उन क्रियाओं से बचने का सन्देश भगवान् महावीर ने दिया। भगवान् महावीर ने स्पष्ट कहा कि सक्रिय जीव की मुक्ति नहीं है। मुक्ति प्राप्त करने वाले साधक को निष्क्रिय बनना होगा। जब तक शरीर है तब तक कर्मबन्धन है। अतः सूक्ष्म शरीर से छूट जाना निष्क्रिय बनना है ।
भगवतीसूत्र शतक सातवें उद्देशक प्रथम में यह स्पष्ट कहा है कि जिन व्यक्तियों में कषाय की प्रधानता है, उनको साम्परायिक क्रिया लगती है और जिनमें कषाय का अभाव है उनको ईर्यापथिक क्रिया लगती हैं। एक बार भगवान् महावीर गुणशीलक उद्यान में अपने स्थविर शिष्यों के साथ अवस्थित थे । उस उद्यान के सन्निकट ही कुछ अन्यतीर्थिक रहे हुए थे। उन्होंने उन स्थविरों से कहा कि तुम असंयमी हो, अविरत हो, पापी हो और बाल हो, क्योंकि तुम इधर-उधर परिभ्रमण करते हो, जिससे पृथ्वीकाय के जीवों की विराधना होती हैं। उन स्थविरों ने उनको समझाते हुए कहा कि हम बिना प्रयोजन इधर-उधर नहीं घूमते हैं और यतनापूर्वक चलने के कारण हिंसा नहीं करते, इसीलिए हमारी हलन चलन आदि क्रिया कर्मबन्धन का कारण नहीं हैं। पर आप लोग बिना उपयोग के चलते हैं अत: वह कर्मबन्धन का कारण है और वह असंयम वृद्धि का भी कारण है।
शतक अठारहवें, उद्देशक आठवें में एक मधुर प्रसंग है— गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि एक संयमी श्रमण अच्छी तरह से ३1⁄2 हाथ जमीन देख कर चल रहा है। उस समय एक क्षुद्र प्राणी अचानक पाँव के नीचे आ जाता है और उस श्रमण के पैर से मर जाता है। उस श्रमण को ईर्यापथिक क्रिया लगती है या साम्परायिक क्रिया ?
भगवान् ने समाधान दिया कि उसको ईर्यापथिक क्रिया ही लगती है साम्परायिक क्रिया नहीं, क्योंकि उसमें कषाय का अभाव है। इस प्रकार बन्ध और कर्मबन्ध होने के कारण चेष्टा रूप जो क्रिया है, उस सम्बन्ध में अनेक प्रश्नों के द्वारा मूल आगम में प्रकाश डाला गया है, जो ज्ञानवर्द्धक और विवेक को उबुद्ध करने वाला है।' निर्जरा
भारतीय चिन्तन में जहाँ बन्ध के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है, वहाँ आत्मा से कर्मवर्गणाओं को पृथक् करने के सम्बन्ध में भी चिन्तन है। जैन पारिभाषिक शब्दावली में आत्मा से कर्मवर्गणाओं का पृथक् हो जाना या उन कर्मपुद्गलों को पृथक् कर देना निर्जरा है। निर्जरा शब्द का अर्थ है— जर्जरित कर देना, झाड़ देना । निर्जरा के दो प्रकार हैं—१ भावनिर्जरा और २. द्रव्यनिर्जरा । आत्मा की वह विशुद्ध अवस्था जिसके कारण कर्मपरमाणु
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तत्त्वार्थसूत्र ६।१-२
भगवती, शतक ८, उद्देशक ७-८; शतक १८, उद्देशक ८
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