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________________ ३. कितने ही शीलसम्पन्न हैं और श्रुतसम्पन्न भी हैं, वे पाप से पूर्ण रूप से बचते हैं, इसलिए वे पूर्ण रूप से आराधक हैं। ४. जो न शीलसम्पन्न हैं और न श्रुतसम्पन्न हैं, वे पूर्ण रूप से विराधक हैं। प्रस्तुत संवाद में भी भगवान् महावीर ने उस साधक के जीवन को श्रेष्ठ बतलाया है जिसके जीवन में ज्ञान का दिव्य आलोक जगमगा रहा हो और साथ ही ज्ञान के अनुरूप जो उत्कृष्ट चारित्र की भी आराधना करता हो। भगवान् महावीर के युग में अनेक दार्शनिक ज्ञान को ही महत्त्व दे रहे थे। उनका यह अभिमत था कि ज्ञान से ही मुक्ति होती है। आचरण की कोई आवश्यकता नहीं। कुछ दार्शनिकों का यह वज्रघोष था कि मुक्ति के लिए ज्ञान की नहीं, चारित्रपालन की आवश्यकता है। मिश्री की मुधरता का परिज्ञान न होने पर भी उसकी मिठास का अनुभव मिश्री को मुँह में डालने पर होता ही है। यह नहीं होता कि मिश्री के विशेषज्ञ को मिश्री का मिठास अधिक अनुभव होता हो। इसलिए "आचारः प्रथमो धर्मः" है । पर भगवान् महावीर ने कहा कि अनन्त आकाश में उड़ान भरने के लिए पक्षी की दोनों पांखें सशक्त चाहिए, वैसे ही साधन की परिपूर्णता के लिए श्रुत और शील दोनों की आवश्यकता है। भगवान् महावीर ने आराधना तीन प्रकार की बताई हैं—ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना और चारित्राराधना । जहाँ तीनों में उत्कृष्टता आ जाती है, वह साधक उसी भव में मुक्ति को प्राप्त होता है। एक में भी अपूर्णता होती है तो वह मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। दर्शन की प्राप्ति चतुर्थ गुणस्थान में हो जाती है। ज्ञान की परिपूर्णता तेरहवें गुणस्थान में होती है और चारित्र की परिपूर्णता चौदहवें गुणस्थान में । जब तीनों परिपूर्ण होते हैं तब आत्मा मुक्त बनता है। कर्मबन्ध और क्रिया भारतीय दर्शन में बन्ध के सम्बन्ध में गहराई से चिन्तन हुआ है। बन्धन ही दुःख है। समग्र आध्यात्मिक चिन्तन बन्धन से मुक्त होने के लिए है। बन्धन की वास्तविकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। जैनदृष्टि से बन्धन विजातीय तत्त्व के सम्बन्ध से होता है। जड़ द्रव्यों में एक पुद्गल नामक द्रव्य है। पुद्गल के अनेक प्रकार हैं, उनमें कर्मवर्गणा या कर्मपरमाणु एक सूक्ष्म भौतिक द्रव्य है। इस सूक्ष्म भौतिक कर्मद्रव्य से आत्मा का सम्बन्धित होना बन्धन है। बन्धन आत्मा का अनात्मा से, जड़ का चेतन से, देह का देही से संयोग है। आचार्य उमास्वाति' के शब्दों में कहा जाए तो कषायभाव के कारण जीव का कर्मपुद्गल से आक्रान्त हो जाना बन्ध है। आचार्य देवेन्द्रसूरि ने लिखा है कि आत्मा जिस शक्ति-विशेष से कर्मपरमाणुओं को आकर्षित कर उन्हें आठ प्रकार के कर्मों के रूप में जीवप्रदेशों से सम्बन्धित करता है तथा कर्मपरमाणु और आत्मा परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, वह बन्धन है।' जैनदृष्टि से बन्ध का कारण आश्रव है। आश्रव का अर्थ है कर्मवर्गणाओं का आत्मा में जाना। आत्मा की विकारी मनोदशा भावाश्रव कहलाती है और कर्मवर्गणाओं के आत्मा में आने की प्रक्रिया को द्रव्याश्रव कहा गया है। भवाश्रव कारण है और द्रव्याश्रव कार्य है। द्रव्याश्रव का कारण भावाश्रव है और द्रव्याश्रव से कर्मबन्धन १. भगवती शतक ८, उद्देशक १० २. तत्त्वार्थसूत्र ८ । २-३ ३. कर्मग्रन्थ वन्धप्रकरण.१ . [३३]
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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