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________________ २३२] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वि पलिओवमस्स असंखेजड़भागं। एवं जहा रयणप्पभाए उववजमाणस्स असन्निस्स नवमगमए तहेव निरवसेसं जाव कालादेसो त्ति, नवरं परिमाणं जहा एयस्सेव ततियगमे। सेसं तं चेव। [नवमो गमओ] [२८] यदि वही (असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च), उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में उत्पन्न होता है, इत्यादि समग्र वक्तव्यता, रत्नप्रभा में उत्पन्न होने वाले असंज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च-सम्बन्धी नवम गमक की वक्तव्यता के अनुसार कालादेश तक कहनी चाहिए। परन्तु परिमाण में विशेष यह है कि वह इसके तीसरे गमक में कहे अनुसार कहना। शेष पूर्ववत् जानना। [नौवां गमक] विवेचन-कुछ स्पष्टीकरण (१) असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च, जो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है, वह असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च से निकल कर असंख्यात वर्ष की आयु वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में उत्पन्न हो सकता है, इसलिए कहा गया है—उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजभागठिईएत्ति। अर्थात्वह उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है। (२) परिमाणादि द्वारों का कथन जिस प्रकार पृथ्वीकायिक से उत्पन्न होने वाले असंज्ञी के पृथ्वीकायिक उद्देशक में परिमाणादि द्वारों का कथन किया गया है उसी प्रकार यहाँ भी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में होने वाले असंज्ञी का भी करना चाहिए। (३) इसका उत्कृष्ट कालादेश—पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपम का असंख्यातवां भाग कहा गया है, वह इस कारण से है कि पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति वाला असंज्ञी, पूर्वकोटि की आयुवाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में सात वार उत्पन्न होता है, इसलिए सात भवग्रहण करने में सात पूर्वकोटिवर्ष हुए। आंठवें भव में पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले यौगलिक तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है। इस प्रकार पूर्वोक्त कालादेश बनता है। (३) असंख्यात वर्ष की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च असंख्यात उत्पन्न नहीं होते वे संख्यात ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि वे संख्यात ही होते हैं। (४) जघन्य स्थिति वाला असंज्ञी, संख्यात वर्ष की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में ही उत्पन्न होता है । इसीलिए चौथे गमक में कहा गया है—उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में ही उत्पन्न होता है। इस प्रकार नौ गमकों का कथन विचारपूर्वक करना चाहिए। (५) असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च की परिमाणादि अवशिष्ट विषयों की वक्तव्यता तीनों मध्यम गमों अर्थात् जघन्य स्थिति वाले तीनों (४-५-६) गमों में अनुबन्धपर्यन्त (पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले के तीनों मध्यम गमकों के अनुसार) कहनी चाहिए।' पंचेन्द्रियतिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यंचों के उत्पाद-परिमाणादि वीस द्वारों की प्ररूपणा २९. जदि सन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजति किं संखेजवासा०, असंखेज०? गोयमा ! संखेज, नो असंखेज। १. (क) भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्र ८४१ (ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. ६, पृ. ३१३४
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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