SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक २२ सागरोपम और उत्कृष्ट तीन अन्तर्मुहूर्त अधिक ६६ सागरोपम, छठे गमक में जघन्य पूर्वकोटि अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम तथा सातवें गमक में जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक ३३ सागरोपम और उत्कृष्ट दो पूर्वकोटि अधिक ३६ सागरोपम, आठवें गमक में जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक ३३ सागरोपम और उत्कृष्ट दो अन्तर्मुहूर्त अधिक ६६ सागरोपम, तथा नौवें गमक में जघन्य पूर्वकोटि अधिक ३३ सागरोपम और उत्कृष्ट दो पूर्वकोटि-अधिक ६६ सागरोपम यावत् इतने काल गमनागमन करता है। [गमक १ से ९ तक] . . विवेचन-कुछ स्पष्टीकरण-(१) नरक से निकले हुए जीव असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यञ्च आदि में आकर उत्पन्न नहीं होते। वे पूर्वकोटि तक की आयु वाले में आकर उत्पन्न होते हैं। (२) पृथ्वीकायिक जीवों में आने वाले असुरकुमार के परिमाण आदि की जो वक्तव्यता कही गई है, वही पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में आने वाले नैरयिक के विषय में जाननी चाहिए। (३) उत्पत्ति के समय नैरयिक की अवगाहना जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग होती है। (४) प्रथम से सप्तम नरक तक के नारकों की अवगाहना-प्रथम नरक में उत्कृष्ट अवगाहना सात धनुष तीन हाथ छह अंगुल कही है, वह तेरहवें प्रस्तट (पाथड़े) की अपेक्षा समझनी चाहिए। प्रथम प्रस्तटादि में अवगाहना का क्रम इस प्रकार है रयणाइ पढम-पयरे, हत्थतियं देह-उस्सयं भणियं। छप्पन्नंगुलसड्ढा, पयरे-पयरे य बुड्ढीओ॥ अर्थात्-रत्नप्रभा-पृथ्वी के प्रथम प्रस्तट में तीन हाथ की अवगाहना होती है। आगे के प्रत्येक प्रस्तट में साढ़े छप्पन अंगुल की वृद्धि होती जाती है । इस क्रम से तेरहवें प्रस्तट के नैरयिक की अवगाहना सात धनुष तीन हाथ छह अंगुल होती है। यह भवधारणीय अवगाहना है । नैरयिक में जितनी भवधारणीय अवगाहना होती है, उससे दुगुनी उत्तरवैक्रिय अवगाहना होती है। सात नरकों की अवगाहना का कथन प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें पद में इस प्रकार है- . सत्त धणु तिष्णि रयणी, छच्चेव अंगुलाई उच्चत्तं। पढमाए पुढवीए विउणा विउणं च सेसासु॥ __ अर्थात्—प्रथम नरक में नारकों की अवगाहना सात धनुष तीन हाथ छह अंगुल की होती है। आगे दूसरे आदि नरकों में क्रमशः दुगुनी-दुगुनी अवगाहना होती है।' (५) यहाँ मूल में दो गमकों में स्थिति आदि का कथन किया गया है। इससे आगे सात गमकों में स्थिति आदि का कथन इसी शतक के प्रथम उद्देशक में संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च के साथ नैरयिक जीवों के समान है। १. (क) भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्र ८४० (ख) पण्णवणासुत्तं (महावीर विद्यालय द्वारा प्रकाशित) भा. १, सू. १५२९/३, पृ. ३४०
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy