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________________ चौवीसवाँ शतक : उद्देशक-२०] [२२५ स्थिति, अनुबन्ध और संवेध (यथायोग्य भिन्न-भिन्न) जानने चाहिए। १०. अहेसत्तमपुढविनेरइए णं भंते ! जे भविए० ? एवं चेव णव गमगा, नवरं ओगाहणा-लेस्सा-ठिति-अणुबंधा जाणियव्वा। संवेहे भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं छ भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइं तिहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई; एवतियं० । आदिल्लएसु छसु गमएसु जहन्नेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं छ भवग्गहणाइं। पच्छिल्लएसु तिसु गमएसु जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं चत्तारि भवग्गहणाई। लद्धी नवसु वि गमएसु जहा पढमगमए, नवर ठितिविसेसो कालाएसो य—बितियगमए जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइं तिहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाइं; एवतियं कालं०। ततियगमए जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाइं पुव्वकोडीए अब्भहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइं, उक्कोसेणं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई। चउत्थगमे जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तमब्भहियाई, तिहिं छावटुिं सागरोवमाइं तिहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाइं। पंचमगमए जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइं तिहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाइं। छट्ठगमए जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाइं पुव्वकोडीए अब्भहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइं तिहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई। सत्तमगमए जहन्नेण तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाई, दोहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई। अट्ठमगमए जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाई दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई। णवमगमए जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं पुव्वकोडीए अब्भहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइं दोहिं पुव्बकोडीहिं अब्भहियाई, एवतियं। [१-९ गमगा]। __ [१० प्र.] भगवन् ! अधःसप्तमपृथ्वी का नैरयिक, जो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में उत्पन्न होने योग्य हो, तो वह कितने काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है ? इत्यादि प्रश्न। _[१० उ.] गौतम ! पूर्वोक्त सूत्र के अनुसार इसके भी नौ गमक कहने चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ अवगाहना, लेश्या, स्थिति और अनुबन्ध भिन्न-भिन्न जानने चाहिए। संवेध-भव की अपेक्षा से-जघन्य दो भव और उत्कृष्ट छह भव, तथा काल की अपेक्षा से-जघन्थ अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम, यावत् इतने काल गमनागमन करता है। प्रथम के छह गमकों (१ से ६ तक) में जघन्य दो भव और उत्कृष्ट छह भव तथा अन्तिम तीन गमकों (७-८-९) में जघन्य दो भव और उत्कृष्ट चार भव जानने चाहिए। नौ ही गमकों में प्रथम गमक के समान वक्तव्यता कहनी चाहिए। परन्तु दूसरे गमक में स्थिति की विशेषता है तथा काल की अपेक्षा से-जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन अन्तर्मुहूर्त अधिक ६६ सागरोपम यावत् इतने काल गमनागमन करता है। तीसरे गमक में जघन्य पूर्वकोटि अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम, चौथे गमक में जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक छासठ सागरोपम, पांचवें गमक
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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