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________________ चौवीसवाँ शतक : उद्देशक - १२] [ १९९ सुविसु जहा असण्णीणं तहेव निरवसेसं । लद्धी से आदिल्लएसु तिसु वि गमएस एस चेव, मल्लिएसु वितिसु गमएस एस चेव । नवरं इमाइं नव नाणत्ताइं — ओगाहणा जहन्त्रेणं अंगुलस्स असंखेज्जति०, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जति० । तिन्नि लेस्साओ, मिच्छादिट्ठी, दो अन्नाणा, कायजोगी, तिन्नि समुग्धाया; ठिती जहन्त्रेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं; अप्पसत्था अज्झवसाणा, अणुबंधो जहा ठिती। सेसं तं चेव । पच्छिल्लएसु तिसु गमएसु जहेव पढमगमए, नवरं ठिती अणुबंधो जहन्त्रेणं पुव्वकोडी, उक्कोसेण वि पुव्वकोडी । सेसं तं चेव । [ १ - ९ गमगा ] । [३३ प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं; इत्यादि प्रश्न । [३३ उ.] ( गौतम ! ) जैसी रत्नप्रभा में उत्पन्न होने योग्य संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों की वक्तव्यता कही है, वैसी यहाँ भी कहनी चाहिए। विशेष यह है कि उनके शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट हजार योजन की होती है। शेष सब उसी प्रकार जानना चाहिए। यावत् कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट ८८ हजार वर्ष अधिक चार पूर्वकोटि, यावत् इतने काल गमनागमन करते हैं । इसी. प्रकार नौ ही गमकों में संवेध भी असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च की तरह कहना चाहिए। प्रथम के तीन (१-२-३ ) गमकों और मध्य के तीन (४-५-६) गमकों में भी यही वक्तव्यता जाननी चाहिए। परन्तु मध्य के तीन (४५-६) गमकों में नौ नानात्व हैं । यथा - ( १ ) शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल का असंख्यातवाँ भाग होती है । (२) लेश्याएँ तीन होती हैं। (३) वे मिथ्यादृष्टि होते हैं । (४) उनमें दो अज्ञान होते हैं । (५) काययोगी होते हैं। (६) तीन समुद्घात होते हैं। (७) स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त होती है । (८) अध्यवसाय अप्रशस्त होते हैं और (९) अनुबन्ध भी स्थिति के अनुसार होता है। शेष सब पूर्वोक्त कथनानुसार कहना चाहिए | अन्तिम तीन (७-८-९) गमकों में प्रथम गमक के समान वक्तव्यता कहनी चाहिए । परन्तु विशेष यह है कि स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि का होता है। शेष सब पूर्ववत् । विवेचन — निष्कर्ष — पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने वाले संज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की होती है। इनके प्रथम तीन गमकों का कथन रत्नप्रभा में उत्पन्न होने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च के प्रथम, द्वितीय और तृतीय गमक के समान ही है। चौथे, पांचवें और छठे गमक का कथन भी इसी प्रकार है । किन्तु नौ विषयों में अन्तर है, जो मूलपाठ में बताया गया है । अन्तिम तीन गमकों SIT कथन प्रथम के तीन गमकों के समान है। स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि का होता है । पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले असंज्ञी -संज्ञी-संख्येय वर्षायुष्क पर्याप्तक- अपर्याप्तक मनुष्यों के उत्पादादि वीस द्वारों की प्ररूपणा ३४. जदि मणुस्सेहिंतो उववज्जंति किं सन्निमणुस्सेहिंतो उवव०, असन्निमणुस्सेहिंतो० ? गोयमा ! सन्निमणुस्सेहिंतो०, असण्णिमणुस्सेहिंतो वि उववज्जंति । [३४ प्र.] ( भगवन् ! ) यदि वे ( पृथ्वीकायिक) मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या असंज्ञी मनुष्यों से ? १. भगवती. अ. वृत्ति पत्र ८२९ -
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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