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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र यावत् इतने काल गमनागमन करता है।
नौ ही गमकों में कायसंवेध—भव की अपेक्षा से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव होते हैं। काल की अपेक्षा से कायसंवेध उपयोगपूर्वक कहना चाहिए। विशेष यह है कि तीनों (चौथे-पांचवें-छठे) गमकों में द्वीन्द्रिय के मध्य में तीनों गमकों के समान कहना चाहिए। पिछले तीन गमकों (सातवें-आठवें-नौवें) का कथन प्रथम के तीन गमकों के समान समझना चाहिए। यह स्थिति और अनुबन्ध जघन्य तथा उत्कृष्ट पूर्वकोटि समझना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् जानना, यावत् नौवें गमक में जघन्य पूर्वकोटि-अधिक २२,००० वर्ष और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटी-अधिक ८८,००० वर्ष; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। [गमक १ से ९ तक]
विवेचन—निष्कर्ष—पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों की स्थिति तथा नौ ही गमकों में जो विशेष अन्तर है, वह मूलपाठ में अंकित है। इसलिए स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है।' पृथ्वीकाय में उत्पन्न होनेवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उपपात-परिमाणादि वीस द्वारों की प्ररूपणा
३१. जदि सन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए० किं संखेजवासाउय० असंखेजवासाउय०?
गोयमा ! संखेजवासाउय०, नो असंखेज्जवासाउय०। _ [३१ प्र.] भगवन् ! यदि वे (पृथ्वीकायिक), संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे संख्यातवर्ष की आयुवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच से आकर उत्पन्न होते हैं या असंख्यातवर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेद्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से ?
_[३१ उ.] गौतम ! वे संख्यातवर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से नहीं।
३२. जदि संखेजवासाउय० किं जलचरेहितो० ?
सेसं जहा असण्णीणं जाव_[३२ प्र.] यदि वे पृथ्वीकायिक संख्यातवर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंञ्चों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या जलचरों से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न।
[३२ उ.] यहाँ समग्र वक्तव्यता असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों के समान जाननी चाहिए। यावत्
३३. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जति ? ___ एवं जहा रयणप्पभाए उववजमासस्स सनिस्स तहेव इह वि, नवरं ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं। सेसं तहेव जाव कालदेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुव्वकोडीओ अट्ठासीतीए वाससहस्सेहिं अब्भहियाओ, एवतियं० । एवं संवेहो
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भा.
२ (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. ९३६-९३७