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________________ चौवीसवाँ शतक : उद्देशक-१२] [१९३ अंतोमुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीतिं वाससहस्साई अडयालीसाए संवच्छरेहिं अब्भहियाई, एवतियं०। [तइओ गमओ] [२२] यदि वह (द्वीन्द्रिय), उत्कृष्टकाल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो तो भी पूर्वोक्त वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि भव की अपेक्षा से—जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव ग्रहण करता है। काल की अपेक्षा से-जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट ४५ वर्ष अधिक ८८,००० वर्ष तक गमनागमन करता है। [तृतीय गमक] २३. सो चेव अप्पणा जहन्नकालट्ठितीओ जाओ, तस्स वि एस चेव वत्तव्वता तिसु वि गमएसु, नवरं इमाई सत्त नाणत्ताइं—सरीरोगाहणा जहा पुढविकाइयाणं; नो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी, दो अन्नाणा णियमं, नो मणजोगी, नो वइजोगी, कायजोगी, ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं, अज्झवसाणा अप्पसत्था, अणुबंधो जहा ठिती। संवेहो तहेव आदिल्लेसु, दोसु गमएसु, ततियगमए भवादेसो तहेव अट्ठ भवग्गहणाई। कालएसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमब्भहियाई उक्कोसणं अट्ठासीर्ति वाससहस्साई चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाइं। [४-६ गमगा] [२३] यदि वह (द्वीन्द्रिय) स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो और पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न हो, तो उसके भी तीनों गमकों में पूर्वोक्त वक्तव्यता कहनी चाहिए। परन्तु विशेष यहाँ सात नानात्व (भेद) हैं। यथा—(१) शरीर की अवगाहना पृथ्वीकायिकों के समान (अंगुल का असंख्यातवाँ भाग) हैं, (२) वह सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होता, किन्तु मिथ्यादृष्टि होता है, (३) इसमें दो अज्ञान नियम से होते हैं, (४) वह मनोयोगी और वचनयोगी नहीं किन्तु काययोगी होता है, (५) उसकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है, (६) उसके अध्यवसाय अप्रशस्त होते हैं और (७) अनुबन्ध स्थिति के अनुसार होता है। दूसरे त्रिकं के पहले के दो गमकों (चौथे और पांचवें गमक) से संवेध भी इसी प्रकार समझना चाहिए। (दूसरे त्रिक के तृतीय गमक) छठे गमक में भवादेश भी उसी प्रकार आठ भव जानने चाहिए। कालादेशजघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक २२,००० वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक ८८,००० वर्ष तक गमनागमन करता है। [गमक ४-५-६] २४. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठितीओ जाओ, एयस्स वि ओहियगमगसरिसा तिन्नि गमगा भाणियव्वा, नवरं तिसु वि गमएसु ठिती जहन्नेणं बारस संवच्छराई, उक्कोसेणं वि बारस संवच्छराई। एवं अणुबंधो वि। भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। कालाएसेणं उवयुज्जिऊण भाणियव्वं जाव नवमे गमए जहन्नेणंबावीसं वाससहस्साइंबारसहिं संवच्छरेहिं अब्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीति वाससहस्साई अडयालीसाए संवच्छरेहिं अब्भहियाई, एवतियं० । [७-९ गमगा] [२४] यदि वह (द्वीन्द्रिय जीव,) स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला हो और पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो तो
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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