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________________ चौवीसवाँ शतक : उद्देशक-१२] [१८७ वर्ष काल कहा गया है, जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति वाले की चार-चार बार उत्पत्ति होती है। एक बार की उत्पत्ति का जघन्य एवं उत्कृष्ट काल बाईस हजार वर्ष है, अत: चार बार उत्पत्ति होने में इतना काल होता है। नौवें गमक में जघन्य काल कितना और क्यों? –नौवें गमक में जघन्य ४४ हजार वर्ष कहे गए हैं। वह इस दृष्टि से कहा गया है कि बाईस हजार वर्ष रूप उत्कृष्ट स्थिति के दो भव करने से ४४ हजार वर्ष होते हैं। पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले अप्कायिकों में उपपात-परिमाणादि वीस द्वारों की प्ररूपणा . १३. जति आउकाइयएगिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं सुहुमआउ० बादरआउ० एवं चउक्कओ भेदो भाणियव्वो जहा पुढविकाइयाणं। . [१३ प्र.] भगवन् ! यदि वह (पृथ्वीकायिक जीव) अप्कायिक-एकेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होता है, तो क्या सूक्ष्म अप्कायिक० से आकर उत्पन्न होता है, या बादर अप्कायिक० से? . [१३ उ.] (गौतम ! ) पृथ्वीकायिक जीवों के समान यहाँ भी (सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, ये) चार भेद कहने चाहिए। १४. आउकाइए णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवतिकालट्ठितीएसु उववजिज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्तट्ठितीएसु, उक्कोसेणं बावीसवाससहस्सद्वितीएसु। एवं पुढविकाइयगमगसरिसा नव गमगा भाणियव्वा। नवरं थिबुगाबिंदुसंठिते। ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सत्त वाससहस्साइं। एवं अणुबंधो वि। एवं तिसु गमएसु। ठिती संवेहो तइय-छट्ठ-सत्तमऽट्ठम-नवमेसु गमएसु भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई सेसेसु चउसु गमएसु जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं असंखेज्जाइं भग्गहणाई। तइयगमए कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साइं, अंतोमुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं सोलसुत्तरं वाससयसहस्सं, एवतियं० । छठे गमए कालएसेणं जहन्नेणं बावीस वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीतिं वाससहस्साई चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई, एवतियं०। सत्तमगमए कालाएसेणं जहन्नेणं सत्त वाससहस्साई, अंतोमुत्तमब्भहियाई उक्कोसेणं सोलसुत्तरं वाससयसहस्सं, एवतियं० । अट्ठमे गमए कालाएसेणं जहन्नेणं सत्त वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाइं, उक्कोसेणं अट्ठावीसं वाससहस्साई चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई, एवतियं० । नवमे गमए भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाइं; कालाएसेणं जहन्नेणं एकूणतीसं वाससहस्साइं, उक्कोसेणं सोलसुत्तरं वाससयसहस्सं, एवतियं० । एवं नवसु वि गमएसु आउकाइयठिई जाणियव्वा। [१–९ गमगा]। १. भगवती. अ. वृत्ति पत्र ८२५
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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