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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
विवेचन — निष्कर्ष — जो संज्ञी - तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय असुरकुमारों में आकर उत्पन्न होते हैं, वे दोनों प्रकार के होते हैं— संख्यात वर्ष की आयु वाले और असंख्यात वर्ष की आयु वाले । असुरकुमार में उत्पन्न होने वाले असंख्ययेवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक की उपपात - परिमाणादि वीस द्वारों की प्ररूपणा
६. असंखेज्जवासाउयसन्निपंचेदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालट्ठितीएस उववजेज्जा ?
गोयमा ! जहन्त्रेणं दसवाससहस्सट्ठितीएस उववज्जेज्जा, उक्कोसेणं तिपलिओवमट्ठितीएसु उववज्जेज्जा।
[६ प्र.] भगवन् ! असंख्यातवर्ष की आयु वाले संज्ञी-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव, जो असुरकुमारों में उत्पन्न होने योग्य हो, वह कितने काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ?
[६ उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है।
७. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं पुच्छा ।
गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जंति । वयरोसभनारायसंघयणी ओगाहणा जहन्त्रेणं धणुपुहत्तं, उक्कोसेणं छग्गाउयाइं । समचउरंसंठाणसंठिया पन्नत्ता । चत्तारि लेस्साओ आदिल्लाओ। नो सम्मद्दिट्ठी, मिच्छादिट्ठि, नो सम्मामिच्छादिट्ठी । नो नाणी, अन्नाणी, नियमं दुअण्णाणी, तं जहा – मतिअन्नाणी, सुयअन्नाणी य। जोगो तिविहो वि । उवयोगो दुवि वि । चत्तारि सण्णाओ । चत्तारि कसाया। पंच इंदिया । तिन्नि समुग्धाया आदिल्लगा । समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति । वेयणा दुविहा वि । इत्थवेदगा वि, पुरिसवेदगा वि, नो नपुंसगवेदगा । ठिती जहन्नेणं सातिरेगा पुव्वकोडी, उक्कोसेणं तिन्नि पनिओवमाई। अज्झवसाणा पसत्था वि अप्पसत्था वि । अणुबंधो जव ठिती । कायसंवेहो भवाएसेणं दो भवग्गहणाई; कालाएसेणं जहन्नेणं सातिरेगा पुव्वकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहिया, उक्कोसेणं छप्पलिओवमाई, एवतियं जाव करेज्जा । [ पढमो गमओ ]
[७ प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय मे कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न ।
[७ उ.] गौतम ! वे जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। वे वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले होते हैं। उनकी अवगाहना जघन्य धनुषपृथक्त्व की और उत्कृष्ट छह गाऊ ( गव्यूति दो कोस) की होती हैं। वे समचतुरस्रसंस्थान वाले होते हैं । उनमें प्रारम्भ की चार लेश्याएं होती हैं। वे सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते, केवल मिथ्यादृष्टि होते हैं । वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी होते हैं । उनमें नियम से दो अज्ञान होते हैं—मति- अज्ञान और श्रुत - अज्ञान। उनमें योग तीनों ही पाये जाते हैं । उपयोग भी दोनों प्रकार के १. विवाहपश्णत्तिसुतं भा. २, पृ. ९२२