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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
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ही होते हैं, इसलिए उत्कृष्ट रूप में इनकी उत्पत्ति संख्यात ही होती है।
" ज्ञान - अज्ञान - नरक में उत्पन्न होने वाले गर्भज मनुष्य के चार ज्ञान और तीन अज्ञान विकल्प से कहे गए हैं, चूर्णिकार द्वारा इसका समाधान किया गया है कि जो मनुष्य अवधिज्ञान, मन: पर्यायज्ञान और आहारकशरीर प्राप्त करके वहाँ से गिर कर नरक में उत्पन्न होता है, उस मनुष्य में अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और आहारकशरीर उसकी पूर्वावस्था को लेकर समझना चाहिए। इस दृष्टि से उक्त मनुष्य में ४ ज्ञान और तीन अज्ञान विकल्प से बताये गए हैं।"
जघन्य स्थिति मासपृथक्त्व : कैसे ? – सिद्धान्त यह है कि दो मास से कम आयुष्य (स्थिति) वाला मनुष्य नरकगति में नहीं जाता, इसलिए नरकगति में जाने वाले मनुष्य की जघन्यं आयु (स्थिति) मासपृथक्त्व होती है।
संवेधकाल — मनुष्यभव की अपेक्षा — मनुष्य होकर यदि नरकगति में उत्पन्न हो तो एक नरकपृथ्वी में चार वार उत्पन्न होता है, उसके पश्चात् वह निश्चय ही तिर्यञ्च होता है। इसलिए मनुष्यभवसम्बन्धी संवेधकाल चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम का कहा गया है।
चौथे गमक में पांच विशेष बातें — जघन्य स्थिति वाले मनुष्य की नरकोत्पत्ति सम्बन्धी चतुर्थ गमक में पांच नानात्व (विशेषताएँ) पाए जाते हैं – (१) यहाँ शरीरावगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुलपृथक्त्व बताई गई है, जबकि प्रथम गमक में जघन्य अंगुलपृथक्त्व और उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष की बताई गई है। (२) प्रथम गमक में ४ ज्ञान और ३ अज्ञान भजना से बताए गए हैं, परन्तु यहाँ ३ ज्ञान और ३ अज्ञान भजना से बतलाए गए हैं; क्योंकि जघन्य स्थिति वाले मनुष्य में इन्हीं का सद्भाव होता है। (३) प्रथम गमक में ६ समुद्घात बतलाए गए हैं, जबकि यहाँ जघन्य स्थिति वाले मनुष्य में आहारकसमुद्घात नहीं पाया जाता। (४-५) प्रथम गमक में स्थिति और अनुबन्ध जघन्य मासपृथकत्व, उत्कृष्ट पूर्वकोटि बतलाया गया है; जबकि यहाँ जघन्य और उत्कृष्ट मास पृथक्त्व ही बतलाया गया है। शेष गमकों का कथन स्पष्ट है, स्वयमेव चिन्तन कर लेना चाहिए।* शर्कराप्रभानरक में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी-मनुष्य में उपपात परिमाणादि द्वारों की प्ररूपणा
१०६. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसन्निमणुस्से णं भंते ! जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए ने इ वववज्जित्त से णं भंते! केवति जाव उववज्जेज्जा ?
गोयमा ! जहन्नेणं सागरोवमट्ठितीएसु, उक्कोसेणं तिसागरोवमठितीएसु उववज्जेज्जा ।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८१६ -८१७
२. (क) ओहिनाण-मणपज्जवनाण- आहारय- शरीराणि लद्धूणं परिसाडित्ता उववज्जंति । —भगवती . चूर्णि (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८१७
३. वही, पत्र ८१७
४. वही, पत्र ८१७
५. वही, पत्र ८१७