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________________ चौवीसवाँ शतक : उद्देशक-१] [१५५ रत्नप्रभानरक में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क मनुष्य में उपपात-परिमाणादि वीस द्वारों की प्ररूपणा ९६. पजसंखेजवासाउयसन्निमणुस्से णं भंते ! जे भविए रयणप्पभपुढविनेरइएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववजेज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेणं सागरोवमद्वितीएसु उवज्जेज्जा। [९६ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी-मनुष्य जो रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? [९६ उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। ९७. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेजा उववजंति। संघयणा छ। सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलपुहत्तं, उक्कोसेणं पंच धणुसयाई। एवं सेसं जहां सन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जाव भवादेसो त्ति, नवरं चत्तारि नाणा, तिन्नि अन्नाणा भयणाए, छ समुग्घाया केवलिवजा; ठिती अणुबंधो य जहन्नेणं मासपुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी। सेसं तं चेव। कालाएसेणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई मासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चउहिं पुवकोडीहिं अब्भहियाई, एवतियं जाव करेजा।[सु० ९६-९७ पढमो गमओ]। [९७ प्र.] भगवन् ! वे जीव (संख्येयवर्षायुष्क पर्याप्त-संज्ञी मनुष्य) एक समय में कितने उत्पन्न होते [९७ उ.] गौतम ! वे जीव जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। उनमें छहों संहनन होते हैं। उनके शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल-पृथक्त्व (दो अंगुल से नौ अंगुल तक) की और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की होती है। शेष सब कथन यावत् भवादेश तक, संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों के समान हैं । विशेष यह है कि उनमें चार ज्ञान तथा तीन अज्ञान विकल्प से होते हैं। केवलिसमुद्घात को छोड़कर शेष छह समुद्घात होते हैं। उनकी स्थिति और अनुबन्ध जघन्य मासपृथक्त्व उत्कृष्ट पूर्वकोटि होता है। शेष सब पूर्ववत् । संवेधकाल की अपेक्षा से जघन्य मासपृथक्त्व अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम तक गमनागमन करता है। [सू. ९६-९७ प्रथम गमक] ९८. सो चेव जहन्नकालद्वितीएसु उववन्नो, एसा चेव वत्तव्वया, नवरं कालादेसेणं जहन्नेणं दस वाससहस्साइं मासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि पुव्वकोडीओ चत्तालीसाए वाससहस्सेहिं अब्भहियाओ, एवतियं०। [सु० ९८ बीओ गमओ]। [९८] यदि वह मनुष्य जघन्यकाल की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो तो उपर्युक्त सर्ववक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि काल की अपेक्षा से—जघन्य मासपृथक्त्व अधिक दस हजार
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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