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________________ ११६] पढमे आलुय' वग्गे: दश उद्देसगा प्रथम आलुक वर्ग : दश उद्देशक इक्कीसवें शतक के चतुर्थवर्गानुसार प्रथम आलुकवर्ग का निरूपण ३. रायगिहे जाव एवं वयासी[३] राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा ४. अह भंते ! आलुय-मूलग-सिंगबेर-हलिद्द-रुरु-कंडरिय-जारु-छीरबिरालि-किट्ठि-कुंदुकण्हकडसु-मधुपयलइ-महुसिंगि-णेरुहा-सप्पसुगंधा-छिन्नरुहा-बीयरुहाणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति०? एवं मूलाईया दस उद्देसगा कायव्वा वंसवग्ग (स. २१ व. ४) सरिसा, नवरं परिमाणं जहन्नेण एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेज्जा वा, अणंता वा उवजंति, अवहारो-गोयमा ! ते णं अणंता समये समये अवहीरमाणा अवहीरमाणा अणंताहिं ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहिं एवतिकालेणं अवहीरंति, नो चेव णं अवहिया सिया, ठिती जहन्नेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं। सेसं तं चेव। ॥ तेवीसइमे सए : पढमो वग्गो समत्तो॥२३-१॥ [४ प्र.] भगवन् ! आलू, मूला, अदरक (शृंगबेर), हल्दी, रुरु, कंडरिक, जीरु, क्षीरविराली (क्षीर विदारीकन्द), किट्ठि, कुन्दु, कृष्णकडसु, मधु, पयलइ, मधुशृंगी, निरुहा, सर्पसुगन्धा, छिन्नरुहा और बीजरुहा, इन सब (साधारण) वनस्पतियों के मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं? [४ उ.] गौतम! यहाँ (इक्कीसवें शतक के चतुर्थ) वंशवर्ग के (दश उद्देशकों के) समान मूलादि दस उद्देशक कहने चाहिए। विशेष यह है कि इनके मूल के रूप में जघन्य एक, दो या तीन, और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात और अनन्त जीव आकर उत्पन्न होते हैं। हे गौतम! यदि एक-एक समय में, एक-एक जीव का अपहार किया जाए तो अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल तक किये जाने पर भी उनका अपहार नहीं हो सकता; (यद्यपि ऐसा किसी ने किया नहीं और कोई कर भी नहीं सकता); क्योंकि उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की होती है। शेष सब पूर्ववत्। ॥ तेईसवाँ शतक : प्रथम वर्ग समाप्त॥ ***
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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