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शतक उद्देशक अक्षर-परिमाण शतक उद्देशक अक्षर-परिमाण ८४१२
४७६४ २२४४३
२३४४ ८०२९
२८ १९८७१ (१२) १२४
३०५९ __ आठ वर्ग ८० १६३०
(१२) १२४ ८९६४ छह वर्ग ६० १०६८ (१२) १३३
४१८१ २३ पांच वर्ग ५०
७१५
(१२) १३२ ३९९०६
(१२) १३२ ११५ ४५१२३
(१२) १३२ ४४५५
(१२) १३२
४० (२१) २३१ २७३४ ६९४ ४१ १९६
३५१६ १०२७ १३८
१९२३ ६१८२२४ मंगल ___ वर्तमान में द्वादशांगी के ग्यारह अंग उपलब्ध हैं। बारहवाँ अंग दृष्टिवाद इस समय विच्छिन्न हो चुका है। ग्यारह अंगों में से केवल भगवती सूत्र के प्रारम्भ में ही मंगलवाक्य है। अन्य किसी भी अंग सूत्र में मंगलवाक्य नहीं है। सहज ही जिज्ञासा हो सकती है कि भगवती में ही मंगलवाक्य क्यों है ? इस जिज्ञासा का समाधान दो दृष्टियों से किया जाता है—एक तर्क की दृष्टि से, दूसरा श्रद्धा की दृष्टि से। तार्किक चिन्तकों का अभिमत है कि आगमयुग में मंगलवाक्य की परम्परा नहीं थी। मंगल, अभिधेय, सम्बन्ध और प्रयोजन ये चारों अनुबन्ध दार्शनिक युग की देन हैं । आगमकार अपने अभिधेय के साथ ही आगम का प्रारम्भ करते हैं, क्योंकि आगम स्वयं ही मंगल हैं। इसलिए उनमें मंगलवाक्य की आवश्यकता नहीं। दिगम्बर परम्परा के आचार्य वीरसेन और जिनसेन ने लिखा है कि आगम में मंगलवाक्य का नियम नहीं है, क्योंकि परमागम में चित्त को केन्द्रित करने में नियमत: मंगल का फल उपलब्ध हो जाता है। अतः भगवती में जो मंगलवाक्य आये हैं वे प्रक्षिप्त होने चाहिए। जब यह धारणा चिन्तकों के मस्तिष्क में रूढ हो गई—ग्रन्थ के आदि, मध्य और अन्त में मंगलवाक्य होना चाहिये, तभी से मंगलवाक्य लिखे गये।
१. २.
एत्थ पण णियमो णत्थि, परमागमुवजोगम्मिणियमेण मंगलफलोवलंभादो।-कपायपाहुड, भाग १. गा.१. पृ. ९ तं मंगलमाइए मझे पज्जंतए य सत्थस्स। पढमं सत्थस्साविग्घपारगमणाए निद्दिटुं। तस्सेवाविग्घत्थं मज्झिमयं अंतिमं च तस्मेव। अव्वोच्छित्तिनिमित्तं सिस्सपसिस्साइवंसस्स॥ -विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १३-१४
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