________________
जा सकता है पर कहीं पर भी 'आगमकेवली' या आगमस्थविर' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। अंग आगमों का मौलिक चिन्तन : परमाणु विज्ञान
आगमों का मौलिक विभाग अंग है। उसमें जहाँ पर धर्म और दर्शन की गम्भीर चर्चाएं हैं, आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध में गहरा विवेचन है, वहाँ अणु के सम्बन्ध में भी तलस्पर्शी वर्णन है। आज के वैज्ञानिक अणु के सम्बन्ध में अन्वेषण करने में जुटे हुए हैं, किन्तु अणु के सम्बन्ध में जिस सूक्ष्मता से चिन्तन श्रमण भगवान् महावीर ने किया है, उतनी सूक्ष्मता से आधुनिक वैज्ञानिक नहीं कर सके हैं। आज का वैज्ञानिक जिसे अणु कहता है; महावीर उसे स्कन्ध कहते हैं। महावीर की दृष्टि से अणु बहुत ही सूक्ष्म है। वह स्कन्ध से पृथक् निरंश तत्त्व है। परमाणुपुद्गल' अविभाज्य है, अच्छेद्य है, अभेद्य है, अदाह्य है। ऐसा कोई उपाय, उपचार या उपाधि नहीं जिससे उसका विभाग किया जा सके। किसी भी तीक्ष्णातितीक्ष्ण शस्त्र और अस्त्र से उसका विभाग नहीं हो सकता। जाज्वल्यमान अग्नि उसे जला नहीं सकती। महामेघ उसे आर्द्र नहीं कर सकता। यदि वह गंगा नदी के प्रतिस्रोत में प्रविष्ट हो जाए तो वह उसे बहा नहीं सकती। परमाणुपुद्गल अनर्थ है, अमध्य है, अप्रदेशी है, सार्ध नहीं है, समध्य नहीं है, सम्प्रदेशी नहीं है। परमाणु न लम्बा है, न चौड़ा है और न गहरा है। वह इकाई रूप है। सूक्ष्मता के कारण वह स्वयं आदि है, स्वयं मध्य है और स्वयं अन्त है। जिसका आदि-मध्य-अन्त एक ही है, जो इन्द्रियग्राह्य नहीं है, अविभागी है, ऐसा द्रव्य परमाणु है।' जीवविज्ञान
___ परमाणु के सम्बन्ध में ही नहीं जीवविज्ञान के सम्बन्ध में भी भगवान् महावीर ने जो रहस्य उद्घाटित किए हैं, ये अद्भुत हैं, अपूर्व हैं। भगवान् महावीर ने जीवों को छह निकायों में विभक्त किया है। त्रसनिकाय के जीव प्रत्यक्ष हैं । वनस्पतिनिकाय के जीव भी आधुनिक विज्ञान के द्वारा मान्य किए जा चुके हैं, किन्तु आधुनिक विज्ञान पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु—इन चारों निकाय में जीव नहीं समझ पाया है। भगवान् महावीर ने पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु में केवल जीव का अस्तित्व ही नहीं माना है अपितु उनमें आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा और लोकसंज्ञा का भी अस्तित्व माना है। वे जीव श्वासोच्छ्वास भी लेते हैं। मानव जैसे श्वास के समय प्राणवायु ग्रहण करता है वैसे पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय आदि के जीव श्वास काल में केवल वायु को ही ग्रहण नहीं करते अपितु पृथ्वी, पानी, वायु, वनस्पति और अग्नि, इन सभी के पुद्गल द्रव्यों को भी ग्रहण करते हैं। पृथ्वीकाय के जीवों में भी आहार की इच्छा होती; वे प्रतिपल, प्रतिक्षण आहार ग्रहण करते हैं। उनमें एक इन्द्रिय होती है और वह है स्पर्श-इन्द्रिय। उसी से उनमें चैतन्य स्पष्ट होता है, अन्य चैतन्य की धाराएं उनमें अस्पष्ट होती हैं। पृथ्वीकायिक जीवों का
भगवती, ५७ भगवती, ५/७ राजवार्तिक, पा२५/१ सर्वार्थसिद्धि टीका - सूत्र ५/२५ भगवती, ९३४।२५३-२५४ भगवती, शश३२
[१५]