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________________ कुसुमों को झेलकर प्रवचनमाला गूंथते हैं। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने नियुक्ति में आए हुए प्रवचन शब्द का अर्थ करते हुए लिखा है—'पंगयं वयणं पवयणमिह सुयनाणं'.......'पवयणमहवा संघो२ अर्थात् प्रकट वचन ही प्रवचन है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि संघ प्रवचन है। संघ को प्रवचन कहने का कारण यह है कि संघ का जो ज्ञानोपयोग है—वही प्रवचन है। इसलिए संघ और ज्ञान का अभेद मानकर संघ को प्रवचन कहा है। यहाँ पर वचन के आगे जो 'प्र' उपसर्ग लगा है, वह प्रशस्त और प्रधान इन दो अर्थों में आया है। प्रशस्त वचन प्रवचन है अथवा प्रधान वचनरूप-श्रुतज्ञान प्रवचन है। श्रुतज्ञान में भी द्वादशांगी प्रधान है इसलिए वह द्वादशांगी प्रवचन है। प्रवचन के भी शब्द और अर्थ ये दो रूप हैं। शब्द, सूत्र के नाम से जाना जाता है और उस सूत्र के रचयिता हैं—गणधर। जिस अर्थ के आधार पर गणधरों ने सूत्र की रचना की; उस अर्थ के प्ररूपक हैंतीर्थंकर। यहाँ पर भी एक प्रश्न समुत्पन्न होता है कि तीर्थंकरों ने अर्थ का उपदेश दिया-क्या यह अर्थ का उपदेश बिना शब्द का था? बिना शब्द के उपदेश देना सम्भव ही नहीं है, तो शब्दों के रचयिता गणधर क्यों माने जाते हैं ? तीर्थंकर क्यों नहीं? इस प्रश्न का समाधान जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने इस प्रकार किया है—तीर्थंकर भगवान् अनुक्रम से बारह अंगों का यथावात् उपदेश प्रदान नहीं करते किन्तु संक्षेप में सिद्धान्त उपदेश देते हैं । उस संक्षिप्त उपदेश को गणधर अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा से बारह अंगों में इस प्रकार संग्रथित करते हैं, जिससे सभी सरलता से समझ सकें। इस प्रकार अर्थ के कर्ता तीर्थंकर हैं और सूत्र के कर्ता गणधर हैं। संक्षेप में तीर्थंकरों का उपदेश किस प्रकार होता है इस प्रश्न पर विचार करते हुए लिखा है—'उप्पन्ने इ वा, विगमे इवा, धुवे इवा'। इस मातृकापदत्रय का ही उपदेश तीर्थंकर प्रदान करते हैं और उसी का विस्तार गणधर द्वादशांगी के रूप में करते हैं। सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, प्रवचन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापन, आगम आप्तवचन, ऐतिह्य, आम्नाय, जिनवचन' और श्रुत, ये सभी आगम के ही पर्यायवाची शब्द हैं। अतीत काल में श्रुत' शब्द का प्रयोग आगम के अर्थ में अधिक होता था। 'श्रुतकेवली', 'श्रुतस्थविर * शब्द का प्रयोग आगमों में अनेक स्थलों पर निहारा sin x तव नियमणाणरुक्खं आरूढो केवली अमियनाणी तो मुयइ नाणवुट्ठि भवियजणविबोहणट्ठाए॥ तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा निहिउं निरवसेसं। तित्थयरभासियाइं गंथंति तओ पवयणट्ठा॥ -आवश्यकनियुक्ति गा.८९-९० विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ११९२ विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १०६८,१३६७ विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १११९-११२८ देखिए विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ११२२ की टीका। (क) सुय-सुत्त-गन्थ-सिद्धत-पवयणे आण-वयण-उवएसे। पण्णवण-आगमे या एगट्ठा पज्जवा सुत्ते। - अनुयोगद्वार ४ (ख) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ८/९७ तत्त्वार्थभाष्य,१-२० ८. नन्दीसूत्र, ४१ ९. . स्थानांग सूत्र १५० s w [१४]
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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