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पढमो उद्देसओ : 'बेइंदिय' प्रथम उद्देशक : द्वीन्द्रियादि विषयक
विकलेन्द्रिय जीवों में स्यात् लेश्यादि द्वारों का निरूपण
२. रायगिहे जाव एवं वयासि
[२] 'भगवन् ! ' राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा....३. सिय भंते जाव चत्तारि पंच बेंदिया एगयओ साधारणसरीरं बंधंति, एग० बं० २ ततो पच्छा आहारेंति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति ?
नो तिणठे समढे, बेंदिया णं पत्तेयाहारा य पत्तेयपरिणामा पत्तेयसरीरं बंधंति, प० बं० २ ततो पच्छा आहारेति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति।
[३ प्र.] भगवन् ! क्या कदाचित् दो, तीन, चार या पांच द्वीन्द्रिय जीव मिलकर एक साधारण शरीर बांधते हैं, इसके पश्चात् आहार करते हैं ? अथवा आहार को परिणमाते हैं. फिर विशिष्ट शरीर को बांधते हैं ?
[३ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (यथार्थ) नहीं है, क्योंकि द्वीन्द्रिय जीव पृथक्-पृथक् आहार करने वाले और उसका पृथक्-पृथक् परिणमन करने वाले होते हैं। इसलिए वे पृथक्-पृथक् शरीर बांधते हैं, फिर आहार करते हैं तथा उसका परिणमन करते हैं और विशिष्ट शरीर बांधते हैं।
४. तेसि णं भंते ! जीवाणं कति लेस्साओ पन्नत्ताओ?
गोयमा ! तओ लेस्साओ पन्नत्ताओ, तं जहा—कण्हलेस्सा नीललेस्सा, काउलेस्सा, एवं जहा एगूणवीसतिमे सए तेउकाइयाणं ( स० १९ उ० ३ सु० १९) जाव उव्वटंति, नवरं सम्मदिट्ठी वि, मिच्छद्दिट्ठी वि, नो सम्मामिच्छादिट्ठी; दो नाणा, दो अन्नाणा नियम; नो मणजोगी, क्यजोगी वि, कायजोगी वि; आहारो नियमं छद्दिसिं।
[४ प्र.] भगवन् ! उन (द्वीन्द्रिय) जीवों के कितनी लेश्याएं कही गई हैं ?
[४ उ.] गौतम ! उनके तीन लेश्याएं कही गई हैं यथा कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या। इस प्रकार समग्र वर्णन, जो उन्नीसवें शतक (के तीसरे उद्देशक के सू. १९) में अग्निकायिक जीवों के विषय में कहा गया है, वह यहाँ भी उद्वर्तित होते हैं, तक कहना चाहिये। विशेष यह है कि ये द्वीन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं, पर सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते हैं। उनके नियमत: दो ज्ञान या दो अज्ञान होते हैं । वे मनोयोगी नहीं होते, वे वचनयोगी भी होते हैं और काययोगी भी होते हैं। वे नियमत: छह दिशा का
१. सिय-लेस्सा आदि द्वारों को जानने के लिए देखें १९वें शतक के तृतीय उद्देशक के स.२ से १७ तक।