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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
गोयमा ! एगा मसूरचंदासंठाणनिव्वत्ती पन्नत्ता ।
[ ३० प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के संस्थाननिर्वृत्ति कितनी है ?
[३० उ. ] गौतम! उनके एकमात्र मसूरचन्द्र - (मसूर की दाल के समान) - संस्थान - निर्वत्ति कही गई है।
३१. एवं जस्स जं संठाणं जाव वेमाणियाणं ।
[३१] इस प्रकार जिसके जो संस्थान हो, तदनुसार निर्वृत्ति वैमानिकों तक कहनी चाहिए।
३२. कतिविधा णं भंते ! सन्नानिव्वत्ती पन्नत्ता ?
गोयमा ! चउव्विहा सन्नाणिव्वत्ती पन्नत्ता, तं जहा—-आहारसन्नानिव्वत्ती जाव परिग्गहसन्नानिव्वत्ती ।
[ ३२ प्र.] भगवन् ! संज्ञानिवृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ?
[३२ उ.] गौतम! संज्ञानिर्वृत्ति चार प्रकार की कही गई है, यथा—आहारसंज्ञानिर्वृत्ति यावत् परिग्रहसंज्ञनिर्वृ ।
३३. एवं जाव वेमाणियाणं ।
[३३] इस प्रकार (नैरयिकों से लेकर) वैमानिकों तक, (संज्ञानिर्वृत्ति का कथन करना चाहिए)।
३४. कतिविधा णं भंते ! लेस्सानिव्वत्ती पन्नत्ता ?
गोमा ! छव्विहा लेस्सानिव्वत्ती पन्नत्ता, तं जहा— कण्हलेस्सानिव्वत्ती जाव सुक्कलेस्सा निव्वत्ती ।
[ ३४ प्र.] भगवन्! लेश्यानिर्वृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ?
[३४ उ.] गौतम! लेश्यानिर्वृत्ति छह प्रकार की कही गई है, यथा— कृष्णलेश्यानिर्वृत्ति यावत् शुक्ललेश्यानिर्वृत्ति ।
३५. एवं जाव वेमाणियाणं, जस्स जति लेस्साओ ।
[३५] इस प्रकार (नैरयिकों से लेकर ) वैमानिकों पर्यन्त (लेश्यानिर्वृत्ति यथायोग्य कहनी चाहिए।) परन्तु जिसके जितनी लेश्याएँ हों, उतनी ही लेश्यानिर्वृत्ति कहनी चाहिए।
३६. कतिविधा णं भंते ! दिट्ठिनिव्वत्ती पन्नत्ता ?
गोयमा ! तिविहा दिट्ठनिव्वती पन्नत्ता, तं जहा — सम्मद्दिट्ठिनिव्वत्ती, मिच्छादिट्ठिनिव्वत्ती, सम्मामिच्छादिट्ठिनिव्वत्ती ।
[ ३६ प्र.] भगवन् ! दृष्टिनिर्वृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ?
[ ३६ उ. ] गौतम! दृष्टिनिर्वृत्ति तीन प्रकार की कही गई है यथा— सम्यग्दृष्टिनिर्वृत्ति, मिथ्यादृष्टिनिर्वृत्ति