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नीचे लिखे रेखाचित्र से इस उद्देशक का वक्तव्य सरलता से समझ में आ जाएगा -
भवनावास, विमानावास
देव-नाम
भवनपति देव
वाणव्यन्तर देव
ज्योतिष्क देव
वैमानिक सौधर्मकल्प देव
ईशानकल्प
सनत्कुमारकल्प
माहेन्द्रकल्प ब्रह्मलोककल्प
लान्तककल्प
महाशुक्रकल्प
सहस्रारकल्प
आणत प्राणत
आरण-अच्युत नौ ग्रैवेयक अनुत्तर
विमान
या नगरावास
कथंचित् शाश्वत
आश्वत
भवनावास
भूमिगत नगरावास
विमानावास विमानावास
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सर्व रत्न मय
सर्व रत्नु मम
सर्व स्फटिक मय
सर्व रत्न मय
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किंमय
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१.
(क) भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका भा. १३, पृ. ४१२-४१३ (ख) वियाहपण्णत्ति भा. २, मू.पा.टि. पृ. ८४५
२. (क) भगवती. विवेचन भा. ६ (पं. घेवरचन्दजी) पृ. २८०७-८ (ख) भगवती. भा. १३, (प्र.चं. टिका), पृ. ४०७
स्वच्छ, श्लक्ष्ण, निर्मल कोमल, घृष्ट मृष्ट, कान्तिमय, मलविहीन, उद्योत सहित, प्रसन्नताजनक
दर्शनीय, अतिरम्य
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कैसे ?
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
कितने ?
६४ लाख
असंख्यात लाख असंख्यात लाख बत्तीस लाख
क्रमशः ९ और १
कठिन शब्दार्थ — दव्वट्टयाए— द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से । किंमया — किससे बने हैं, कैसे हैं । सव्वफालिहामया—सर्वस्फटिकरत्नमय ।
वक्कमंति : विशेषार्थ — जो पहले वहाँ कभी उत्पन्न नहीं हुए हैं, वे उत्पन्न होते हैं।
विउक्कमंति—– (१) विशेषरूप से उत्पन्न होते हैं, (२) विनष्ट होते हैं । चयंति — च्यवते हैं, मरते हैं, च्युत होते हैं— निकलते हैं । उववज्जंति—पुन: उत्पन्न होते हैं ।
॥ उन्नीसवाँ शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त ॥
२८ लाख
१२ लाख
८ लाख
४ लाख
५० हजार
४० हजार
६ हजार
४००
३००