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उन्नीसवाँ शतक : उद्देशक - ५
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[ ३ प्र.] भगवन् ! क्या असुरकुमार चरम भी हैं और परम भी हैं ?
[ ३ उ. ] हाँ, गौतम! वे दोनों हैं, किन्तु विशेष यह है कि यहाँ (परम एवं चरम के सम्बन्ध में) पूर्वकथन से विपरीत कहना चाहिए। (जैसे कि ) परम असुरकुमार (अशुभकर्म की अपेक्षा) अल्पकर्म वाले हैं और चरम असुरकुमार महाकर्म वाले हैं। शेष पूर्ववत् स्तनितकुमार - पर्यन्त इसी प्रकार जानना चाहिए।
४. पुढविकाइया जाव मणुस्सा एए जहा नेरइया ।
[४] पृथ्वीकायिकों से लेकर मनुष्यों तक नैरयिकों के समान समझना चाहिए ।
५. वाणमंतर - जोतिस-वेमाणिया जहा असुरकुमारा ।
[५] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के सम्बन्ध में असुरकुमारों के समान कहना चाहिए
विवेचन— नैरयिकादि का चरम, परम के आधार पर अल्पकर्मत्वादि का निरूपण – प्रस्तुत ५ सूत्रों (१से ५ तक) में नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक चरम और परम के आधार पर महाकर्मत्व अल्पकर्मत्व आदि का निरूपण किया गया 1
'चरम' और 'परम' की परिभाषा—ये दोनों पारिभाषिक शब्द हैं। इनका क्रमशः अर्थ हैं— अल्प स्थिति (आयुष्य) वाले और दीर्घ स्थिति (लम्बी आयु वाले ।
चरम की अपेक्षा परम नैरयिक महाकर्मादि वाले क्यों ? – जिन नैरयिकों की स्थिति अल्प होती है, उनकी अपेक्षा दीर्घ स्थिति वाले नैरयिकों के अशुभकर्म अधिक होते हैं, इस कारण उनकी क्रिया, आस्रव और वेदना भी अधिकतर होती है। इसीलिए कहा गया है कि चरम की अपेक्षा परम नैरयिक महाकर्म, महाक्रिया, महास्रव और महावेदना वाले होते हैं।
परम की अपेक्षा चमर नैरयिक अल्पकर्मादि वाले क्यों ? - परम नैरयिक दीर्घ स्थिति वाले होते हैं, अतः उनकी अपेक्षा अल्प स्थिति वाले चरम नैरयिकों के अशुभकर्मादि अल्प होने से वे अल्पकर्मादि वाले होते हैं । पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय से लेकर मनुष्यों तक इसी प्रकार समझना चाहिए।
चारों प्रकार के देवों में इनसे विपरीत भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में परम (दीर्घ स्थिति वालों) की अपेक्षा चरम (अल्प स्थिति वाले) देव महाकर्मादि वाले हैं, चरम देवों की अपेक्षा परम देव अल्पकर्मादि वाले हैं, क्योंकि उनके (दीर्घ स्थिति वालों के) असातावेदनीयादि अशुभकर्म अल्प होते हैं, इस कारण उनमें कायिकी आदि क्रियाएँ भी अल्प होती हैं, अशुभकर्मों का आस्रव भी कम होता है और उन्हें पीड़ा अत्यल्प होने से उनके वेदना भी अल्प होती है। चरम (अल्प स्थिति वाले) देव के अशुभ कर्म भी अधिक, क्रिया भी अधिक, आस्रव और वेदना भी अधिक होती है। इसीलिए कहा गया है- - परम की अपेक्षा चरम देव
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१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७६९
(ख) भगवती विवेचन (पं. घेवरचंदजी) भा. ६, पृ. २८०४