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________________ ७८८ ('म' से महा और 'अ' से अल्प समझना) १ म. म. म. म. ५ म. अ. म. म. २ म. म. म. अ. ६ म. अ. म. अ. ३ म. म. अ. म. ७ म. अ. अ. म. ४ म. म. अ. अ. ८ म. अ. अ. अ. नैरयिकों में इन सोलह भंगों में से दूसरा भंग ही पाया जाता है, क्योंकि नैरयिकों के कर्मों का बन्ध बहुत होता है, इसलिए वे महास्त्रवी हैं। उनके कायिकी आदि बहुत क्रियाएँ होती हैं, इसलिए वे महाक्रिया वाले हैं। उनके असातावेदनीय का तीव्र उदय है, इस कारण वे महावेदना वाले हैं। उनमें अविरति परिणामों के होने से सकामनिर्जरा तो होती नहीं, अकामनिर्जरा होती है, पर वह अत्यल्प होती है। इसलिए वे अल्पनिर्जरा वाले हैं। इस प्रकार नैरयिकों में महास्रव, महाक्रिया, महावेदना और अल्पनिर्जरा, यह द्वितीय भंग ही पाया जाता है।" असुरकुमारों से लेकर वैमानिकों तक में महास्रव आदि चारों पदों की प्ररूपणा १७. सिय भंते ! असुरकुमारा महस्सवा महाकिरिया महावेयणा महानिज्जरा ? णो इणट्ठे समट्ठे । एवं चउत्थो भंगो भाणियव्वो । सेसा पण्णरस भंगा खोडेयव्वा । ९. अ. म. म. म. १०. अ. म. म. अ. ११. अ. म. अ. अ. १२. अ. म. अ. अ. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र १३ अ. अ. म. म. १४ अ. अ. म. अ. १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७६७ (ख) भगवती भा. ६, विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) पृ. २७९८-९९ १५ अ. अ. अ. म. १६ अ. अ. अ. अ. [१७ प्र.] भगवन्! क्या असुरकुमार महास्रव, महाक्रिया, महावेदना और महानिर्जरा वाले होते हैं ? [ १७ उ.] गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इस प्रकार यहाँ (पूर्वोक्त सोलह भंगों में से) केवल चतुर्थ भंग कहना चाहिए, शेष पन्द्रह भंगों का निषेध करना चाहिए । १८. एवं जाव थणियकुमारा । [१८] इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक समझना चाहिए। १९. सियं भंते ! पुढविकाइया महस्सवा महाकिरिया महावेयणा महानिज्जरा ? हंता, सिया । [१९ प्र.] भगवन्! क्या पृथ्वीकायिक जीव कदाचित् महास्रव, महाक्रिया, महावेदना और महानिर्जरा वाले होते हैं ? [१९ उ.] हाँ, गौतम! कदाचित् होते हैं ।
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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