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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
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जुवाणी अप्पातंका, वण्णओ, जाव निउणसिप्पोवगया, नवरं 'चम्मेदुदुहणमुट्ठियसमाहयणिचितगत्तकाया' न भण्णति, सेसं तं चेव जाव निउणसिप्पोवगया, तिक्खाए वइरामईए सण्हकरणीए तिक्खेणं वइरामएणं वट्टावरएणं एगं महं पुढविकायं जउगोलासमाणं गहाय पडिसाहरिय पडिसाहरिय पडिसंखिविय पडिसंखिविय जाव 'इणामेव' त्ति कट्टु तिसत्तखुत्तो ओपीसेज्जा । तत्थ णं गोयमा ! अत्थेगइया पुढविकाइया आलिद्धा, अत्थेगइया नो आलिद्धा, अत्थेगइया संघट्टिया, अत्थेगइया नो संघट्टिया, अत्थेगइया परियाविया, अत्थेगइया नो परियाविया, अत्थेगइया उद्दविया, अत्थेगड्या नो उद्दविया, अत्थेगइया पिट्ठा, अत्थेगइया नो पिट्ठा; पुढविकाइयस्स णं गोयमा ! एमहालिया सरीरोगाहणा
पन्नत्ता ।
[३२ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकाय के शरीर की कितनी बड़ी (महती) अवगाहना कही गई है ?
[३२ उ.] गौतम! जैसे कोई तरुणी, बलवती, युगवती, युवावय-प्राप्त, रोगरहित इत्यादि वर्णन - युक्त यावत् कलाकुशल, चातुरन्त ( चारों दिशाओं के अन्त तक जिसका राज्य हो, ऐसे ) चक्रवर्ती राजा की चन्दन घिसने वाली दासी हो। (विशेष यह है कि यहाँ चर्मेष्ट, द्रुघण, मौष्टिक आदि व्यायाम-साधनों ने सुदृढ़ बने हुए शरीर वाली, इत्यादि विशेषण नहीं कहने चाहिए। क्योंकि इन व्यायामयोग्य साधनों की प्रवृत्ति स्त्री के लिए अनुचित एवं अयोग्य होती है।) ऐसी शिल्पनिपुण दासी, चूर्ण पीसने की वज्रमयी कठोर ( तीक्ष्ण ) शिला पर वज्रमय तीक्ष्ण (कठोर) लोढ़े (बट्टे) से लाख के गोले के समान, पृथ्वीकाय (मिट्टी) का एक बड़ा पिण्ड लेकर बार-बार इकट्ठा करती और समेटती ( संक्षिप्त करती) हुई— 'मैं अभी इसे पीस डालती हूँ', यों विचार कर उसे इक्कीस बार पीस दे तो हे गौतम ! कई पृथ्वीकायिक जीवों का उस शिला और लोढ़े (शिलापुत्रक) से स्पर्श होता है और कई पृथ्वीकायिक जीवों का स्पर्श नहीं होता। उनमें से कई पृथ्वीकायिक जीवों का घर्षण होता है और कई पृथ्वीकायिकों का घर्षण नहीं होता। उनमें से कुछ को पीड़ा होती है, कुछ को पीडा नहीं होती । उनमें से कई मरते ( उपद्रवित होते) हैं, कई नहीं होते तथा कई पीसे जाते हैं और कई नहीं पीसे जाते । गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव के शरीर की इतनी बड़ी ( या सूक्ष्म) अवगाहना होती है ।
विवेचन—पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर की अवगाहना — प्रस्तुत सूत्र ३२ में जो प्रश्न पूछा गया है, उसका शब्दश: अर्थ होता है— पृथ्वीकायिक जीव की शरीरावगाहना कितनी बड़ी होती है ? इस प्रश्न का समाधान दिया गया है कि चक्रवर्ती की बलिष्ठ एवं सुदृढ़ शरीर वाली तरुणी द्वारा वज्रमय शिला पर पृथ्वी का बड़ा सा गोला पूरी शक्ति लगा कर २१ बार पीसने पर भी बहुत से पृथ्वीकण यों के यों रह जाते हैं, शिला पर उनका चूर्ण नहीं होता, वे घर्षणविहीन रह जाते हैं, इत्यादि वर्णन पर से स्पष्ट प्रतीत होता है कि पृथ्वीकाय के जीव अत्यन्त सूक्ष्म अवगाहना वाले होते हैं ।"
कठिन शब्दार्थ –वण्णग-पेसिया - चंदन पीसने वाली दासी। जुगवं — युगवती—उस युग में यानी चौथे आरे में पैदा हुई हो, ऐसी । जुवाणी – युवावस्था प्राप्त । अप्पातंका- आतंक अर्थात् दुःसाध्य रोग से (ख) भगवती. विवेचन, (पं. घेवरचन्दजी) भा. ६, पृ. २७९१
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७६७