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उन्नीसवाँ शतक : उद्देशक-३
[५ प्र.] भगवन्! वे जीव ज्ञानी हैं अथवा अज्ञानी हैं ?
[५ उ.] गौतम! वे ज्ञानी नहीं हैं, अज्ञानी हैं। उनमें दो अज्ञान निश्चित रूप से पाए जाते हैं—मतिअज्ञान और श्रुत-अज्ञान।
६. ते णं भंते ! जीवा किं मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी ? गोयमा ! नो मणजोगी, नो वइजोगी, कायजोगी। [६ प्र.] भगवन् ! क्या वे जीव मनोयोगी हैं, वचनयोगी हैं, अथवा काययोगी हैं ? [६ उ.] गौतम! वे न तो मनोयोगी हैं, न वचनयोगी हैं, किन्तु काययोगी हैं। ७. ते णं भंते ! जीवा किं सागारोवउत्ता, अणागारोवउत्ता ? गोयमा ! सागारोवउत्ता वि, अणागारोवउत्ता वि। [७ प्र.] भगवन् ! वे जीव साकारोपयोगी हैं या अनाकारोपयोगी हैं ? [७ उ.] गौतम! वे साकारोपयोगी भी हैं और अनाकारोपयोगी भी हैं। ८. ते णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारेंति ?
गोयमा ! दव्वओ अणंतपएसियाई दव्वाइं एवं जहा पन्नवणाए पढमे आहारुद्देसए जाव सव्वप्पणयाए आहारमाहारेंति।।
[८ प्र.] भगवन् ! वे (पृथ्वीकायिक) जीव क्या आहार करते हैं ?
[८ उ.] गौतम! वे द्रव्य से—अनन्तप्रदेशी द्रव्यों का आहार करते हैं, इत्यादि वर्णन प्रज्ञापनासूत्र के (२८ वें पद के) प्रथम आहारोद्देशक के अनुसार सर्व आत्मप्रदेशों से आहार करते हैं, यहाँ तक (जानना चाहिए)।
९. ते णं भंते ! जीवा जमाहारेंति तं चिज्जइ, जंनो आहारेंति तं नो चिजइ, चिण्णे वा से उद्दाति पलिसप्पति वा ?
हंता, गोयमा! ते णं जीवा जमाहारेंति तं चिन्जइ, जं नो जाव पलिसप्पति वा।
[९ प्र.] भगवन् ! वे जीव जो आहार करते हैं, क्या उसका चय होता है, और जिसका आहार नहीं करते, उसका चय नहीं होता? जिस आहार का चय हुआ है, वह आहार (असारभागरूप में) बाहर निकलता है ? और (साररूप भाग) शरीर-इन्द्रियादि रूप में परिणत होता है ?
। [९ उ.] गौतम! वे जो आहार करते हैं, उसका चय होता है, और जिसका आहार नहीं करते, उसका चय नहीं होता, यावत् सारभागरूप आहार शरीर, इन्द्रियादिरूप में परिणत होता है।
१०. तेसिं णं भंते ! जीवाणं एवं सन्ना ति वा पन्ना ति वा मणो ति वा वई ति वा 'अम्हे णं आहारमाहारेमो?'