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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[१८] (भव्य-द्रव्य-) पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम काल की है।
१९. एवं मणुस्सस्स वि। [१९] (भव्य-द्रव्य-) मनुष्य की स्थिति भी इसी प्रकार है। २०. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियस्स जहा असुरकुमारस्स। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० ।
॥अट्ठारसमे सए : नवमो उद्देसओ समत्तो॥१८-९॥ [२०] (भव्य-द्रव्य-) वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देव की स्थिति असुरकुमार के समान है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन—भव्य-द्रव्य-नारकादि की जघन्य-उत्कृष्ट स्थिति—जो संज्ञी या असंज्ञी अन्तर्मुहुर्त की आयु वाला जीव मर कर नरकगति में जाने वाला है, उसकी अपेक्षा भव्य-द्रव्य-नैरयिक की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की कही गई है। उत्कृष्ट करोड़ पूर्व वर्ष की आयु वाला जीव मर कर नरकगति में जाए उसकी अपेक्षा से उत्कृष्ट स्थिति करोड़ पूर्व वर्ष की कही गई है।
. जघन्य अन्तर्मुहूर्त की आयु वाले मनुष्य या तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय की अपेक्षा से भव्य-द्रव्य-असुरकुमारादि की जघन्य स्थिति जाननी चाहिए तथा देवकुरु-उत्तरकुरु के यौगलिक मनुष्य की अपेक्षा से तीन पल्योपम की उत्कृष्ट स्थिति समझनी चाहिए।
भव्य-द्रव्य-पृथ्वीकायिक की उत्कृष्ट स्थिति ईशानकल्प (देवलोक) की अपेक्षा कुछ अधिक दो सागरोपम की है। ____ भव्य-द्रव्य-अग्निकायिक और वायुकायिक की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट करोड़ पूर्व वर्ष की है, क्योंकि देव और यौगलिक मनुष्य अग्निकाय और वायुकाय में उत्पन्न नहीं होते। भव्य-द्रव्यपंचेन्द्रियतिर्यञ्च की उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपम की बताई है, वह सातवें नरक के नारकों की अपेक्षा से समझनी चाहिए और भव्य-द्रव्य-मनुष्य की ३३ सागरोपम की स्थिति सर्वार्थसिद्ध से च्यवकर आने वाले देवों की अपेक्षा समझनी चाहिए।
॥ अठारहवां शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त॥
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१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७५३-७५७