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________________ ७४४ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अत्थेगतिए न जाणइ न पासइ। [१९ प्र.] भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य अनन्तप्रदेशी स्कन्ध को जानता देखता है ? इत्यादि प्रश्न । [१९ उ.] गौतम ! १. कोई जानता है और देखता है, २. कोई जानता है, किन्तु देखता नहीं, ३. कोई जानता नहीं, किन्तु देखता है और ४. कोई जानता भी नहीं और देखता भी नहीं। विवेचन—परमाणु एवं द्विप्रदेशिकादि स्कन्ध को जानने-देखने की छद्मस्थ की शक्तिछद्मस्थ शब्द से यहाँ निरतिशय ज्ञानी (जो अतिशय ज्ञानधारी नहीं है, ऐसा) विवक्षित है। ऐसे छद्मस्थ मनुष्य को परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थविषयक ज्ञान एवं दर्शन होते हैं या नहीं होते हैं ? यह प्रश्न का आशय है। इसके उत्तर का आशय यह है कि कई छद्मस्थ मनुष्यों को सूक्ष्म पदार्थविषयक ज्ञान तो होता है, किन्तु दर्शन नहीं होता। क्योंकि 'श्रुतोपयुक्तः श्रुतज्ञानी, श्रुतदर्शनाभावात्'- श्रुतज्ञानी जिन सूक्ष्मादि पदार्थों को श्रुत के बल से जानता है, उन पदार्थों का दर्शन यानी प्रत्यक्ष ज्ञान या अनुभव उसे नहीं होता। इसीलिए यहाँ कहा गया है कि कितने ही छद्मस्थ मनुष्य परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थों का ज्ञान तो शास्त्र के आधार से कर लेते हैं, परन्तु उनके साक्षात् दर्शन से रहित होते हैं। 'श्रुतोपयुक्तातिरिक्तस्तु न जानाति, न पश्यति' इस नियम के अनुसार जो छद्मस्थ श्रुतज्ञानी मनुष्य श्रुतोपयोग से रहित होते हैं, वे सूक्ष्मादि पदार्थों को न तो जान पाते हैं और न ही देख पाते हैं। इसी प्रकार द्विप्रदेशी स्कन्ध (द्वयणुक अवयव) से लेकर असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध (तीन, चार, पाँच, छह, सात और आठ, नौ, दश और संख्यात एवं असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध) तक के विषय में भी समझना चाहिए। अनन्तप्रदेशी स्कन्ध को जानने-देखने के विषय में चौभंगी—इस विषय में चार भंग बताए गए हैं, यथा—(१) कोई छद्मस्थ मनुष्य स्पर्श आदि से उसे जानता है और चक्षु से देखता है। (२) कोई छद्मस्थ स्पर्शादि द्वारा उसे जानता तो है, परन्तु नेत्र के अभाव में उसे देख नहीं पाता। (३) कोई छद्मस्थ मनुष्य स्पर्शादि का अविषय होने से उसे नहीं जान पाता, किन्तु चक्षु से उसे देखता है। यह तृतीय भंग है; जैसे दूरस्थ पर्वत आदि को कोई छद्मस्थ मनुष्य चक्षु के द्वारा देखता है, पर स्पर्शादि द्वारा उसे जानता नहीं तथा (४) इन्द्रियों का अविषय होने से कोई छद्मस्थ मनुष्य न तो जान पाता है, और न ही देख पाता है, जैसे अन्धा मनुष्य। अवधिज्ञानी परमावधिज्ञानी और केवली द्वारा परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक को जानने-देखने के सामर्थ्य का निरूपण २०. आहोहिए णं भंते ! मणुस्से परमाणुपोग्गलं ? जहा छउमत्थे एवं आहोहिए वि जाव अणंतपएसियं। [२० प्र.] भगवन् ! क्या आधोऽवधिक (अवधिज्ञानी) मनुष्य, परमाणुपुद्गल को जानता देखता है ? १. (क) भगवती अ. वृत्ति, पत्र ७५५ (ख) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. १२, पृ. १८१ २. (क) वही, भाग. १२, पृ. १८२ (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७५६
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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