________________
७३८
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ४. ग्रह-नक्षत्र-तारारूप ज्योतिष्कदेव
४०० वर्षों में ५. ज्योतिषीन्द्र चन्द्र-सूर्य
५०० वर्षों में ६. सौधर्म-ईशानकल्प के देव
१००० वर्षों में ७. सनत्कुमार-माहेन्द्र देव
२००० वर्षों में ८. ब्रह्मलोक लान्तक देव
३००० वर्षों में ९. महाशुक्र-सहस्रार देव
४००० वर्षों में १०. आनत-प्राणत-आरण-अच्युतकल्प देव
५००० वर्षों में ११. अधस्तन ग्रैवेयक देव
एक लाख वर्षों में १२. मध्यम ग्रैवेयक देव
दो लाख वर्षों में १३. उपरितन ग्रैवेयक देव
तीन लाख वर्षों में १४. विजय-वैजयन्त-जयन्त-अपराजित देव
चार लाख वर्षों में १५. सर्वार्थसिद्ध देव
पांच लाख वर्षों में अनन्तकर्मांश क्षय का तात्पर्य यह है कि देवों के पुण्यकर्म प्रकृष्टतर और प्रकृष्टतम रस वाले होते हैं। अतः यहाँ अनन्तकांशों के क्षय करने का जो कालक्रम बताया है, वह उत्तरोत्तर प्रकृष्ट, प्रकृष्टतर और प्रकृष्टतम रसवाले कर्मों के क्षय का समझना चाहिए।
जैसे व्यन्तरों के अनन्तकर्मपुद्गल अल्पानुभागवाले होने से शीघ्र खप जाते हैं। उनकी अपेक्षा भवनपतियों के अनन्त कर्मपुद्गल प्रकृष्ट अनुभाग वाले होने से अधिक काल यानी २०० वर्षों में खपते हैं।
॥अठारहवां शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त॥
०००
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. २, पृ. ८२१-८२२ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७५३-७५४