________________
७३५
अठारहवाँ शतक : उद्देशक-७ महर्द्धिकदेवों का लवणसमुद्रादि तक चक्कर लगाकर आने का सामर्थ्य-निरूपण
४५. देवे णं भंते ! महिड्डीए जाव महासोक्खे पभूलवणसमुदं अणुपरियट्टित्ताणं हव्वमागच्छित्तए ? हंता, पभू।
[४५ प्र.] भगवन् ! महर्द्धिक यावत् महासुखसम्पन्न देव लवणसमुद्र के चारों ओर चक्कर लगाकर शीघ्र आने (अनुपर्यटन करने) में समर्थ हैं ?
[४५ उ.] हाँ, गौतम! (वे ऐसा करने में) समर्थ हैं। ४६. देवे णं भंते ! महिड्डीए एवं धातइसंडं दीवं जाव। हंता, पभू।
[४६. प्र.] भगवन् ! महर्द्धिक यावत् महासुखी देव धातकीखण्ड द्वीप के चारों ओर चक्कर लगाकर शीघ्र आने में समर्थ हैं?
[४६ उ.] हाँ, गौतम! वे समर्थ हैं। ४७. एवं जाव रुयगवरं दीवं जाव ? हंता, पभू। तेण परं वीतीवएज्जा नो चेव णं अणुपरिवटेज्जा। [४७. प्र.] भगवन् ! क्या इसी प्रकार वे देव रुचकवर द्वीप तक चारों ओर चक्कर लगा कर आने में समर्थ
. [४७ उ.] हाँ, गौतम! समर्थ हैं। किन्तु इससे आगे के द्वीप-समुद्रों तक देव जाता है, किन्तु उसके चारों ओर चक्कर नहीं लगाता।
विवेचन–महर्द्धिक देवों का अनुपर्यटन-सामर्थ्य—महर्द्धिक देव, लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, रुचकवरद्वीप आदि के चारों ओर चक्कर लगाकर शीघ्र आ सकते हैं, किन्तु इससे आगे के द्वीप-समुद्रों तक वे जा सकते हैं, मगर उनके चारों ओर चक्कर नहीं लगाते, क्योंकि तथाविध-प्रयोजन का अभाव है। सभी देवों द्वारा अनन्त कर्मांशों को क्षय करने के काल का निरूपण
४८. अत्थि णं भंते ! ते देवा जे अणंते कम्मंसे जहन्नेणं एक्केणं वा दोहि वा तीहि वा, उक्कोसेणं पंचहिं वाससएहिं खवयंति ?
हंता, अत्थि। [४८ प्र.] भगवन् ! क्या इस प्रकार के भी देव हैं, जो अनन्त (शुभकर्मप्रकृतिरूप) कर्मांशों को जघन्य
१. पाठान्तर—'महसक्खे' २. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. २, पृ. ८२१