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ग्यारहवां शतक : उद्देशक-९
४३ अन्नमनस्स एवमाइक्खति तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव भंडानिक्खेवं करेति, हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग० तं चेव जाव वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य। तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्मं तं चेव जाव तेण परं वोच्छिन्ना दीवा यसमुद्दा यातंणं मिच्छा।अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि–एवं खलु जंबुद्दीवादीया दीवा लवणादीया समुद्दा संठाणओ एगविहिविहाणा, वित्थारओ अणेगविहिविहाणा एवं जहा जीवाभिगमे जाव सयंभूरमणपज्जवसाणा अस्सि तिरियलोए असंखेजा दीवसमुद्दा पण्णत्ता समणाउसो !
[२१] बहुत-से मनुष्यों से यह बात सुन कर और विचार कर गौतम स्वामी को संदेह, कुतूहल यावत् श्रद्धा उत्पन्न हुई। वे निर्ग्रन्थोद्देशक (शतक २ उ.५, सू. २५-१) में वर्णित वर्णन के अनुसार भगवान् की सेवा में आए और पूर्वोक्त बात के विषय में पूछा-'शिवराजर्षि जो यह कहते हैं, यावत् उससे आगे द्वीपों और समुद्रों का सर्वथा अभाव है, भगवन् ! क्या उनका ऐसा कथन यथार्थ है ?'
- [उ.] भगवान् महावीर ने गौतम आदि को सम्बोधित करते हुए इस प्रकार कहा—'हे गौतम ! जो ये बहुत-से लोग परस्पर ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं (इत्यादि) शिवराजर्षि को विभंगज्ञान उत्पन्न होने से लेकर यावत् उन्होंने तापस-आश्रम में भण्डोपकरण रखे। हस्तिनापुर नगर में श्रृंगाटक, त्रिक आदि राजमार्गों पर वे कहने लगे—यावत् सात द्वीप-समुद्रों से आगे द्वीप-समुद्रों का अभाव है, इत्यादि सब पूर्वोक्त कहना चाहिए। तदनन्तर शिवराजर्षि से यह बात सुनकर बहुत से मनुष्य ऐसा कहते हैं, यावत् उससे आगे द्वीप-समुद्रों का सर्वथा अभाव है।' (यह जो जनता में चर्चा है) वह कथन मिथ्या है। हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि वास्तव में जम्बूद्वीपादि द्वीप एवं लवणादि समुद्र एक सरीखे वृत्त (गोल) होने से आकार (संस्थान) में एक समान हैं परन्तु विस्तार में (एक दूसरे से दुगुने-दुगुने होने से) वे अनेक प्रकार के हैं, इत्यादि सभी वर्णन जीवाभिगम में कहे अनुसार जानना चाहिए, यावत् 'हे आयुष्मन् श्रमणो ! इस तिर्यक् लोक में असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं।' _ विवेचन—गौतमस्वामी द्वारा शिवराजर्षि को उत्पन्न ज्ञान का भगवान् से निर्णय प्रस्तुत तीन सूत्रों (१९-२०-२१) में चार तथ्यों का निरूपण किया गया है—(१) भगवान् का हस्तिनापुर में पदार्पण, (२) गौतम स्वामी द्वारा जनता से शिवराजर्षि को उत्पन्न अतिशय ज्ञान की चर्चा का श्रवण, (३) अपनी शंका भगवान् के समक्ष प्रस्तुत करना, (४) भगवान् द्वारा शिवराजर्षि का अतिशय ज्ञान होने का दावा मिथ्या होने का कथन।
कठिन शब्दों का भावार्थ—एकविहिविहाणा—सभी गोल होने से सभी एक ही प्रकार के व्यवहार आकार वाले। वित्थारओ-विस्तार से। पज्जवसाणा-पर्यन्त। . १. देखिये जीवाभिगमसूत्र प्रति. ३, उ. १, सू. १२३ में—"दुगुणादुगुणं पडुप्पाएमाणा पवित्थरमाणा ओभासमाणवीइया ....... बहुप्पलकुमुदनलिणसुभगसोगंधिपुंडरीयमहापुंडरीयसयपत्तसहस्सपत्तसयसहस्सपत्तपफुल्लकेसरोववेया ......
पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ता पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता।" २. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. २, पृ. ५२३ ३. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५२०