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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [१८] तदनन्तर शिवराजर्षि से यह (उपर्युक्त) बात सुनकर और विचार कर हस्तिनापुर नगर के शृंगाटक, त्रिक यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोग एक-दूसरे से इस प्रकार कहने यावत् बतलाने लगे हे देवानुप्रियो ! शिवराजर्षि जो इस प्रकार की बात कहते यावत् प्ररूपणा करते हैं कि 'देवानुप्रियो ! मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, यावत् इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र ही हैं। इससे आगे द्वीप और समुद्रों का अभाव है,' उनकी यह बात इस प्रकार कैसे मानी जाए।
विवेचन—शिवराजर्षि का अतिशय ज्ञान का दावा और लोकचर्चा–प्रस्तुत तीन सूत्रों में तीन घटनाओं का उल्लेख है—(१) शिवराजर्षि को विभंगज्ञान की उत्पत्ति, (२) उनके द्वारा हस्तिनापुर में अतिशय ज्ञानप्राप्ति का दावा और (३) जनता में परस्पर चर्चा।'
कठिन शब्दों का अर्थ अज्झथिए—अध्यवसाय, विचार । अतिसेसे—अतिशय । वोच्छिण्णेविच्छेद है—अभाव है। तावसावसहे—तापसों के आवसथ (आश्रम) में। भगवान् द्वारा असंख्यात द्वीपसमुद्र-प्ररूपणा
१९. ते णं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे। परिसा जाव पडिगया।
[१९] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहाँ पधारे। परिषद् ने धर्मोपदेश सुना, यावत् वापस लौट गई।
२०. ते णं कालेणं ते णं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे अंतवासी जहा बितियसए नियंठुद्देसए (स. २ उ. ५ सु. २१-२४) जाव अडमाणे बहुजणसदं निसामेति-बहुजणो अन्नमनस्स एवं आइक्खति जाव एवं परूवेई ‘एवं खलु देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवं आइक्खइ जाव
थ णं देवाणप्पिया! तं चेव जाव वोच्छिन्ना दीवा य समहा य।से कहमेयं मन्ने एवं?' .. [२०] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूमि अनगार ने, दूसरे शतक के निर्ग्रन्थोद्देशक (श. २ उ.५ सू. २१-२४) में वर्णित विधि के अनुसार यावत् भिक्षार्थ पर्यटन करते हुए, बहुत-से लोगों के शब्द सुने । वे परस्पर एक-दूसरे से इस प्रकार कह रहे थे, यावत् इस प्रकार बतला रहे थे—हे देवानुप्रियो ! शिवराजर्षि यह कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि 'हे देवानुप्रियो ! इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं, इत्यादि यावत् उससे आगे द्वीप-समुद्र नहीं हैं, तो उनकी यह बात कैसे मानी जाए ?'
२१. तए णं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एयमलै सोच्चा निसम्म जायसड्ढे जहा नियंठुद्देसए ( स. २ उ. ५ सु. २५ [१]) जाव तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य। से कहमेयं भंते ! एवं ?
'गोयमा !' दी समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वदासी–जं णं गोयमा ! से बहुजणे
परूवइ
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. २, पृ.५२२-५२३ २. भगवती, विवेचन (पं. घेवरचन्दजी), भा. ४, पृ. १८८७