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________________ ७१४ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र है, वह ऋजुरूप की विकुर्वणा करना चाहे तो ऋजुरूप की विकुर्वणा कर सकता है,यावत् जिस रूप की जिस प्रकार से विकुर्वणा करना चाहता है, उस रूप की उस प्रकार से विकुर्वणा कर सकता है। १३. दो भंते ! नागकुमारा.? एवं चेव। [१३ प्र.] भगवन् ! दो नागकुमारों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न है ? [१३ उ.] गौतम! उसी प्रकार (पूर्ववत्) जानना चाहिए। १४. एवं जाव थणियकुमारा। [१४] इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक के विषय में (जानना चाहिए)। १५. वाणमंतरा-जोतिसिय-वेमाणिया एवं चेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। ॥अट्ठारसमे सए : पंचम उद्देसओ समत्तो॥१८-५॥ [१५] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में भी इसी प्रकार (कथन करना चाहिए।) 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन—स्वेच्छानुसार या स्वेच्छाविपरीत विकुर्वणा करने का कारण—भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक, इन चार प्रकार के देवों में से कितने ही देव स्वेच्छानुकूल सीधी या टेढ़ी विकुर्वणा (विक्रिया) कर सकते हैं, इसका कारण यह है कि उन्होंने ऋजुतायुक्त सम्यग्दर्शन निमित्तक तीव्र रस वाले वैक्रियनामकर्म का बन्ध किया है और जो देव अपनी इच्छानुकूल सीधी या टेढ़ी विकुर्वणा नहीं कर सकते, उसका कारण यह है कि उन्होंने माया-मिथ्यादर्शन-निमित्तक मन्द रस वाले वैक्रियनामकर्म का बन्ध किया है। इसलिए प्रस्तुत चार सूत्रों (१२ से १५ तक) में यह सिद्धान्त प्ररूपित किया गया है कि अमायिसम्यग्दृष्टि देव स्वेच्छानुसार रूपों की विकुर्वणा कर सकते हैं जबकि मायिमिथ्यादृष्टि देव स्वेच्छानुसार रूपों की विकुर्वणा नहीं कर सकते। ॥अठारहवाँ शतक : पंचम उद्देशक समाप्त॥ ००० १ (क) भगवतीसूत्र. अ. वृत्ति पत्र ७४७ (ख) भगवती. विवेचन भा. ६ (पं. घेवरचन्दजी), पृ. २७०७
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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