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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र चौवीस दण्डकों में वर्तमानभव और आगामीभव की अपेक्षा आयुष्यवेदन का निरूपण
८. नेरइए णं भंते ! अणंतरं उव्वट्टित्ता जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! कयरं आउयं पडिसंवेदेति ?
गोयमा ! नेरइयांउयं पडिसंवेदेति, पंचेंदियतिरिक्खजोणियाउए से पुरओ कडे चिट्ठइ। ___ [८ प्र.] भगवन् ! जो नैरयिक मर कर अन्तर-रहित (सीधे) पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने के योग्य है, भगवन् ! वह किस आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है ? . [८ उ.] गौतम ! वह नारक नैरयिक-आयुष्य का प्रतिसंवेदन (अनुभव) करता है, और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक के आयुष्य के उदयाभिमुख—(पुर:कृत) करके रहता है।
९. एवं मणुस्सेसु वि, नवरं मणुस्साउए से पुरतो कडे चिट्ठति।
[९] इसी प्रकार (अन्तररहित) मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य जीव के विषय में समझना चाहिए। विशेष यह है कि वह मनुष्य के आयुष्य को उदयाभिमुख करके रहता है।
१०. असुरकुमारे णं भंते ! अणंतरं उव्वट्टित्ता जे भविए पुढविकाइएसु उववज्जित्तए० पुच्छा।
गोयमा ! असुरकुमाराउयं पडिसंवेदेति, पुढविकाइयाउए से पुरतो कडे चिट्ठइ। . [१० प्र.] भगवन् ! जो असुरकुमार मर कर अन्तररहित पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य है, उसके विषय में पूर्ववत् प्रश्न है।
[१० उ.] गौतम! वह असुरकुमार के आयुष्य का प्रतिसंवेदन (अनुभव) करता है और पृथ्वीकायिक के आयुष्य को उदयाभिमुख करके रहता है।
११. एवं जो जहिं भविओ उववज्जित्तए तस्स तं पुरतो कडं चिट्ठति, जत्थ ठिती तं पडिसंवेदेति जाव वेमाणिए। नवरं पुढविकाइओ पुढविकाइएसु उववजंतओ पुढविकाइयाउयं पडिसंवेदेति, अन्ने य से पुढविकाइयाउए पुरतो कडे चिट्ठति। एवं जाव मणुस्सो सट्ठाणे उववातेयव्वो, परट्ठाणे तहेव।
[११] इस प्रकार जो जीव जहाँ उत्पन्न होने के योग्य है, वह उसके आयुष्य को उदयाभिमुख करता है, और जहाँ रहा हुआ है, वहाँ के आयुष्य का वेदन (अनुभव) करता है। इस प्रकार वैमानिक तक जानना चाहिए। विशेष यह है कि पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिकों में ही उत्पन्न होने योग्य है, वह अपने उसी पृथ्वीकायिक के आयुष्य का वेदन करता है और अन्य पृथ्वीकायिक के आयुष्य को उदयाभिमुख (पुर:कृत) करके रहता है। इसी प्रकार मनुष्य तक स्वस्थान में उत्पाद के विषय में कहना चाहिए। परस्थान में उत्पाद के विषय में पूर्वोक्तवत् समझना चाहिए।
विवेचन-कौन किस आयु का वेदन करता है ?—सू. ८ से ११ तक में सैद्धान्तिक तथ्य प्रस्तुत किया गया है कि जो जीव जब तक जिस आयु सम्बन्धी शरीर को धारण करके रहा हुआ है, वह तब तक उसी