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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
अन्धकवह्नि जीवों में अल्पबहुत्व परिमाण निरूपण
१८. जावतिया णं भंते ! वरा अंधगवण्हिणो जीवा तावतिया परा अंधगवहिणो जीवा ? हंता गोयमा ! जावतिया वयरा अंधगवण्हिणो जीवा तावतिया परा अंधगवहिणो जीवा । सेवं भंते! सेव भंते! ति० ।
॥ अट्ठारसमे सए : चउत्थो उद्देसओ समत्तो ॥ १८-४॥
[१८ प्र.] भगवन् ! जितने अल्प आयुष्य वाले अन्धकवह्नि जीव हैं, उतने ही उत्कृष्ट आयुष्यवाले अन्धकवह्नि जीव हैं ?
'[१८ उ.] हाँ, गौतम! जितने अल्पायुष्क अन्धकवह्नि जीव हैं, उतने ही उत्कृष्टायुष्क अन्धकवह्नि जीव
हैं।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन —— अन्धकवह्नि : दो विशेषार्थ – (१) वृत्तिकार के अनुसार — अन्धक की संस्कृत - छाया 'अंह्रिप' होती है, जो वृक्ष का पर्यायवाची शब्द है । अतः अंह्रिप यानी वृक्ष को आश्रित करके रहने वाले अंह्रिपविह्नि अर्थात्— — बादर तेजस्कायिकजीव । (२) अन्य आचार्यों के मतानुसार — अन्धक अर्थात् सूक्षमनामकर्म के उदय से अप्रकाशक (प्रकाश न करने वाली ) वह्नि – अग्नि, अर्थात् — सूक्ष्म अग्निकायिक जीव। ये जितने अल्पायुष्य वाले हैं, उतने ही जीव दीर्घायुष्य वाले हैं।
कठिन शब्दार्थ — जावइया - जितने परिमाण में, तावइया - उतने परिमाण में । वरा— अवर यांनी आयुष्य की अपेक्षा अर्वाग्भागवर्ती- — अल्प आयुवाले । परा — प्रकृष्ट यानी स्थिति से उत्कृष्ट (दीर्घ) आयुष्य वाले ।
॥ अठारहवाँ शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७४५ - ७४६